भारत देश
में ईसाई मत का आगमन कब हुआ। यह कुछ निश्चित नहीं हैं। एक मान्यता के अनुसार 52 AD में संत थॉमस का आगमन दक्षिण भारत में हुआ।
उनके प्रभाव से ईसाई बने भारतीय अपने आपको सीरियन ईसाई कहते हैं। ईसाई इतिहासकारों
की इस मान्यता में अनेक कल्पनायें समाहित हैं।वास्को दे गामा के 1498 में भारत आगमन के साथ ईसाई व्यापारी के रूप
में भारत आने लगे। भारत में ईसाईयों के इतिहास में दो हस्तियों के कारनामे सबसे
अधिक प्रसिद्द हैं। पहले फ्रांसिस ज़ेवियर और दूसरे रोबर्ट दी नोबिली।
पुर्तग़ालियों के भारत आने और गोवा में जम जाने के बाद ईसाई पादरियों ने भारतीयों
का बलात् धर्म-परिवर्तन करना शुरू कर दिया। इस अत्याचार को आरम्भ करने वाले ईसाई
पादरी का नाम फ्रांसिस ज़ेवियर (Francis Xavier, 7 April 1506–3 December 1552) था।
फ्रांसिस ज़ेवियर ने हिन्दुओं को
धर्मान्तरित करने का भरसक प्रयास किया मगर उसे आरम्भ में विशेष सफलता नहीं मिली।
उसने देखा की उसके और ईसा मसीह की भेड़ों की संख्या में वृद्धि करने के मध्य हिन्दू
ब्राह्मण सबसे अधिक बाधक हैं। फ्रांसिस जेविअर के अपने ही शब्दों में ब्रह्माण
उसके सबसे बड़े शत्रु थे क्यूंकि वे उन्हें धर्मांतरण करने में सबसे बड़ी रुकावट
थे। फ्रांसिस ज़ेवियर ने इस समस्या के समाधान के लिए ईसाई शासन का आश्रय लिया।
वाइसराय द्वारा यह आदेश लागू किया गया कि सभी ब्राह्मणों को पुर्तगाली शासन की
सीमा से बाहर कर दिया जाये । गोवा में किसी भी स्थान पर नए मंदिर के निर्माण एवं
पुराने मंदिर की मरमत करने की कोई इजाज़त नहीं होगी। इस पर भी असर न देख अगला आदेश
लागू किया गया की जो भी हिन्दू ईसाई शासन के मार्ग में बाधक बनेगा उसकी सम्पति
जप्त कर ली जाएगी। इससे भी सफलता न मिलने अधिक कठोरता से अगला आदेश लागू किया गया।
राज्य के सभी ब्राह्मणों को धर्म परिवर्तन कर ईसाई बनने का अथवा देश छोड़ने का
फरमान जारी हुआ। इस आदेश के साथ हिन्दुओं विशेष रूप से ब्राह्मणों पर भयंकर
अत्याचार आरम्भ हो गये। हिन्दू पंडित और वैद्य पालकी पर सवारी नहीं कर सकता था।
ऐसा करने वालो को दण्डित किया जाता था। यहाँ तक जेल में भी ठूस दिया जाता था।
हिन्दुओं को ईसाई बनने के लिए प्रोत्साहित किया जाता था। ईसाई बनने पर राज संरक्षण
की प्राप्ति होना एवं हिन्दू बने रहने पर प्रताड़ित होने के चलते हजारों हिन्दू
ईसाई बन गए। हिन्दुओं को विवाह आदि पर उत्सव करने की मनाही करी गई। ईसाई शासन के
अत्याचारों के चलते हिन्दू बड़ी संख्या में पलायन के लिए विवश हुए। फ्रांसिस ज़ेवियर
के शब्दों में परिवर्तित हुए हिन्दुओं को ईसाई बनाते समय उनके पूजा स्थलों को,उनकी मूर्तियों को उन्हें तोड़ने देख उसे
अत्यंत प्रसन्नता होती थी। हजारों हिन्दुओं को डरा धमका कर, अनेकों को मार कर, अनेकों को जिन्दा जला कर, अनेकों की संपत्ति जब्त कर, अनेकों को राज्य से निष्कासित कर अथवा जेलों
में डाल कर ईसाई मत ने अपने आपको शांतिप्रिय एवं न्यायप्रिय सिद्ध किया। हिन्दुओं
पर हुए अत्याचार का वर्णन करने भर में लेखनी कांप उठती है। गौरी और गजनी का
अत्याचारी इतिहास फिर से सजीव हो उठा था। विडंबना देखिये की ईसा मसीह के लिए भेड़ों
की संख्या में वृद्धि के बदले फ्रांसिस जेविअर को ईसाई समाज ने संत की उपाधि से
नवाजा गया। गोवा प्रान्त में एक गिरिजाघर में फ्रांसिस ज़ेवियर की अस्थिया सुरक्षित
रखी गई है। हर वर्ष कुछ दिनों के लिए इन्हें दर्शनार्थ रखा जाता है। सबसे बड़ी
विडंबना देखिये इनके दर्शन एवं सम्मान करने गोवा के वो ईसाई आते है जिनके पूर्वज
कभी हिन्दू थे एवं उन्हें इसी ज़ेवियर ने कभी बलात ईसाई बनाया गया था।
रोबर्ट दी
नोबिली नामक ईसाई का आगमन 1606
में मदुरै, दक्षिण भारत में हुआ। उसने पाया की वहां पर
हिन्दुओं को धर्मान्तरित करना लगभग असंभव ही है। उसने देखा की हिन्दू समाज में
ब्राह्मणों की विशेष रूप से प्रतिष्ठा हैं। इसलिए उसने धूर्तता करने की सोची। उसने
पारम्परिक धोती पहन कर एक ब्राह्मण का वेश धरा। जनेऊ, शिखा रख कर शाकाहारी भोजन करना आरम्भ कर
दिया। उसने यह प्रचलित कर दिया की वह सुदूर रोम से आया हुआ ब्राह्मण है। उसके
पूर्वज भारत से रोम गए थे। उसने तमिल और संस्कृत भाषा में ग्रन्थ रचना करने का नया
प्रपंच भी किया। इस ग्रन्थ को उसने "वेद" का नाम दिया। ब्राह्मण वेश
धरकर नोबिली ने सत्संग करना आरम्भ कर दिया। उसके सत्संग में कुछ हिन्दू आने लग गए।
धीरे धीरे उसने सत्संग में ईसाई प्रार्थनों का समावेश कर दिया। उसके प्रभाव से
अनेक हिन्दू ईसाई बन गए। कालांतर में मैक्समूलर ने नोबिली के छदम "वेद"
का रहस्य उजागर कर दिया। पाठक सोच रहे होंगे की मैक्समूलर ने ऐसा क्यों किया। जबकि
दोनों ईसाई थे। उत्तर सुनकर रोंगटे खड़े हो जायेगे। नोबिली ईसाइयत के एक सम्प्रदाय
रोमन कैथोलिक से सम्बंधित था जबकि मैक्समूलर प्रोटोस्टेंट सम्प्रदाय से सम्बंधित
था। दोनों के आपसी जलन और फुट ने इस भेद का भंडाफोड़ कर दिया। जहाँ पर धर्म का
स्थान मज़हब/मत मतान्तर ले लेते हैं। वहां पर ऐसा ही होता है।
नोबिली को
ईसाई समाज में दक्षिण भारत में धर्मान्तरण के लिए बड़े सम्मान से देखा जाता है।
पाठक स्वयं विचार करे। वेश बदल कर धोखा देने वाला नकल करने वाला सम्मान के योग्य
है अथवा तिरस्कार के योग्य है? प्रसिद्द राष्ट्रवादी लेखक सीता राम गोयल द्वारा ईसाई समाज द्वारा हिन्दू वेश
धारण करने,
हिन्दू
मंदिरों के समान गिरिजाघर बनाने, हिन्दू धर्मग्रंथों के समान ईसाई भजन एवं मंत्र बनाने, हिन्दू देवी देवताओं के समान ईसा मसीह एवं
मरियम की मूर्तियां बनाने,
ईसाई शिक्षण
संस्थान को गुरुकुल की भाँति नकल करने की अपने ग्रंथों में भरपूर आलोचना करी है| विचार
करे क्या ईसाईयों को अपने धर्म ग्रंथों एवं सिद्धांतों पर इतना अविश्वास है की
उन्हें नकल का सहारा लेकर अपने मत का प्रचार करना पड़ता है। धर्म की मूल सत्यता पर
टीकी है। न की जूठ,फरेब, नकल और धोखे पर टिकी हैं।
भारत देश के
विशाल इतिहास के ईसाईयों के अत्याचार, जूठ,
धोखे से
सम्बंधित दो कारनामों का सत्य इतिहास मैंने अपने समक्ष रखा हैं। यह इतिहास उस काल
का है जब भारत में अंग्रेजी हुकूमत की स्थापना नहीं हुई थी। पाठक कल्पना करे
अंग्रेजों के संरक्षण में ईसाईयों ने कैसे कैसे कारनामे करे होगे।
डॉ विवेक
आर्य
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