बट रही संस्कृति,
बंट रहा देश,
जाति सम्प्रदाय
से बढ़ रहे क्लेश।
मानव हो मानवता
के बनो पुजारी
है वसुदेव
कुटुम्बकम की संस्कृति हमारी।।
मानवता को नष्ट
करता, जातिवाद
जाति, सम्प्रदायों
में बांटकर,
कर रहे मानवता
का अपमान।
उसके बेटे-बेटियों
पर ये जुल्म,
करे क्षमा नहीं
भगवान।।
परमात्मा ने इस
संसार का व प्राणियों की आव’यकता की चल-अचल वस्तुओं का निर्माण
किया। उसने सूर्य, चन्द्रमा, मेघ से
गिरता पानी, नदी, तालाब, समुद्र,
यह पृथ्वी, वृक्ष औषधि पशु आदि समस्त प्राणियों के
लिए दिए उसने मनुष्य-मनुष्य में कोई भेद नहीं किया क्योंकि हमसब परमात्मा के ही
पुत्र-पुत्री हैं, हममें कोई भेद नहीं। ये जाति भेद अज्ञानतावश
मनुष्यों की देन है। परमात्मा ने किसी को ऊॅंचा-नींचा, अछूत या
दलित नहीं बनाया, यह सब तो मनुष्य की सोच के कारण है। जब मनुष्य
की बुद्धि में यह अज्ञानता का विचार नहीं आया था तब तक संसार में मनुष्य एक ही
जाति थी।
‘‘दुनिया का इकरामी
आलम आम था।
पहले एक कौम थी, इंसान
जिसका नाम था।।’’
ये जातिवाद
हमारी सनातन संस्कृति के अनुसार नहीं है। जिस प्रकार आज अनेक ऐसी कई मान्यतायें
प्रचलन में आ हुई हैं, जिनका कोई ठोस आधार ही नहीं है। किन्तु उन्हें
मानने वालों की संख्या अच्छी खासी हो हुई है, इसलिए
उसे अब सामाजिक मान्यता के रूप में माना जा रहा है। ऐसे ही वर्ण व्यवस्था के स्थान
पर जाति व्यवस्था का प्रचलन हो हुआ। क्यों हुआ, कबसे हुआ,
यह कहीं स्पष्ट नहीं है।
समाज में पहले
वर्ण व्यवस्था थी, जिसमें मनुष्य की पहचान उसके कर्म स्वभाव के
आधार पर थी, उचित थी। मनुष्य को अपनी योग्यता के अनुसार
ब्राहमण, क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र स्थान प्राप्त होता था।
आज न समाजवाद है,
न राष्ट्रवाद है न मानवीय द्रष्टिकोण , इन सब पर
भारी जातिवाद है। परिणाम हुआ खरबूजे को देख खरबूजा रंग बदलता है की कहावत चरितार्थ
हो रही है। जब जातिवाद को शस्त्र बनाकर ही सबकुछ पाया जा सकता है तो दूसरा वर्ग जो
अभी तक जातिवाद को महत्व नहीं देता रहा वह भी इसी ओर प्रेरित होकर जातिवाद को
बढ़ावा दे रहा है। जन्म के अनुसार जाति
व्यवस्था में मनुष्य को बांटना समस्त समाज
के लिए एक नासूर है। ऐसा नासूर जिसकी आंच में समाज, संगठन
संस्कृति, राष्ट्र सभी बुरी तरह झुलस रहे है।
जातिवाद और
साम्प्रदायिक विचारधारा के कारण यह देश वर्षों तक गुलाम रहा। सनातन धर्म की
जातियों में बटी शक्ति ने विदेशी ताकतों को अवसर प्रदान किया। जातिवाद के पाप के
कारण हमने ही भाईयों को तिरस्कृत कर उन्हें सनातन धर्म से पृथक होने हेतु विवश
किया। जातिवाद के विष का ही प्रभाव था, डॉ- भीमराव
अम्बेडकर जैसे महान व्यक्तित्व को बौद्ध सम्प्रदाय स्वीकार करना पड़ा। हृदय विदारक
घटनाओं से जिसमें मोपला कांड जिससे सनातन संस्कृति को भारी
क्षति हुई, उपेक्षा के
कारण सनातन धर्मियों ने दूसरे सम्प्रदाय को अपना लिया। जातिवाद का ही
दुष्परिणाम कश्मीर केरल, पूर्वांचल के कई राज्य हैं जहॉं
सनातन धर्मी अपने ही देश में अनेक प्रकार के संकट हिंसा और अपमान से भरी
जिन्दगी जी रहे हैं। जाति व सम्प्रदाय का ही परिणाम पाकिस्तान, बांग्लादेश
व कश्मीर का तांडव है। इस जातिवाद, छुआछूत की मानसिकता ने ही अपनी शक्ति,
संगठन देश को कमजोर कर दिया।
जन्म से मनुष्य
की जाति मानने का कहीं शास्त्रों का कोई प्रमाण
नहीं है।
योगिराज
श्रीकृष्ण ने चार वर्ण को कर्म के अनुसार माना. संसार
के श्रेष्ठतम विद्वान आचार्य मनु ने जन्म से जाति को नहीं माना है। कर्म के अनुसार
वर्ण व्यवस्था का सिद्धांत माना हुआ है। जन्मना जायते शूद्रः संस्काराद् द्विज
उच्चयते। जन्म से सभी शूद्र हैं, ज्ञानमय संस्कारों से ब्राह्मण बनते
हैं। जन्म से सभी शूद्र अर्थात अज्ञानी ही होते हैं। क्योंकि बालपन में किसी को
कोई ज्ञान नहीं होता इसलि, सभी को शूद्र कहा जाता है, परमात्मा
ने हमे यह स्वतंत्रता दी है कि हम अपने जीवन को ब्राह्मण, वेश्य या
शूद्र जो बनाना चाहे स्वयं बना सकते हैं। जन्म से कोई ब्राह्मण, क्षत्रिय
या वेश्य पैदा नहीं होता। शूद्र को किसी जाति से जोड़ना मूर्खता है।
प्राचीन समय में
वर्ण व्यवस्था ही व्यवहार में थी पुष्टि
तुलसीदास जी की इन पंक्तियों से भी होती है।
वर्णश्रम
निज-निज धरम निरत वेद पथ लोग।
चलहिं सदा पावहिं सुखई नहिं भय सोक न रोग।।
जाति शब्द का
उपयोग प्राणियों की एक प्रकार की
श्रेष्ठता के लिए किया जाता है, पहले यही किया जाता था। जैसे पंखों से
उड़ने वाले समस्त प्राणियों की जाति पतंग विहंग जाति, जल में
रहने वाले समस्त जीवों की जलचर जाति, चैपा, प्राणियों
की पशु जाति और मनुष्य के रूप में जन्में
सभी की मानव जाति एक ही कहलाएगी
हमारी सनातन
संस्कृत मनुष्य बनने का सन्देश देती है। ‘‘मनुर्भव जन्या
दैव्यमः जनम‘‘ पहले स्वयं मनुष्य बनो और दूसरो को भी मनुष्य
बनाओ। किसी जाति का सदस्य बनने का नहीं कहा।
हम जिन भगवान
राम को मानते हैं, उन्होंने सबको गले लगाया। जिनके रातदिन गीतों
में बसते हैं रघुपति राघव राजाराम, पतित पावन सीताराम’’ पर
उसे अपने जीवन में आत्मसात नहीं करते।
लेखक - प्रकाश
आर्य
मंत्री
-सार्वदेशिक आर्य प्रतिनिधि सभा, दिल्ली
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