रेप के मामलों
में सख्त कानून की मांग को लेकर अनशन पर बैठीं दिल्ली महिला आयोग की अध्यक्ष
स्वाति मालीवाल ने पास्को एक्ट में हुए बदलाव के बाद जूस पीकर अपना अनशन खत्म किया
भूख हड़ताल पर बैठी स्वाति मालीवाल की मांग थी कि रेप के आरोपी को 6 माह के अन्दर
फांसी हो जानी चाहिए. अब पता नहीं उनका आमरण अनशन आम जनता के कितना भीतर तक असर
करेगा पर ये सच है कि अन्ना के अनशन में भी कुछ लोगों ने अपने राजनीतिक करियर की
नींव रखने का कार्य किया था.
देखा जाये अनशन,
धरने और पद यात्रा किसी भी लोकतंत्र का एक हिस्सा होता है. सत्ता के
शीर्ष पर बैठे लोगों तक जब अपनी बात न पहुंचे तो इन सब तरीकों को ही माध्यम माना
जाता रहा है. मेरे विचार से राजनीति का अनशन से संबंध उतना ही पुराना है, जितना
योगियों का ईश्वर प्राप्ति के लिए अन्न-जल का त्याग करना. यदि किसी के मन में मैल नहीं
है और उसका उद्देश्य सार्थक है तो अनशन से बढ़कर कोई हथियार नहीं होता. महात्मा
गाँधी से लेकर अन्ना हजारे तक, अनशन और धरने का हमारा एक लम्बा कालखंड रहा है.
साल 1929 में
लाहौर जेल के भीतर एक ऐसी भूख हड़ताल शुरू हुई थी जिसकी गूंज आज भी सुनाई देती है.
उस समय क्रन्तिकारी जतिन दास ने भारत के राजनीतिक कैदियों के साथ भी यूरोपीय
कैदियों की तरह व्यवहार करने की मांग को लेकर भूख हड़ताल शुरू की. दास की हड़ताल
तोड़ने के लिए ब्रिटिश जेल प्रशासन ने काफी कोशिशें कीं. मुंह और नाक के रास्ते जबरदस्ती खाना डालने की
कोशिश भी की गई लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी. अंत में अंग्रेज सरकार को झुकना पड़ा
था. लेकिन जतिन दास को स्वयं की राजनितिक लालसा नहीं थी उनका उद्देश्य सिर्फ सभी
भारतीय कैदियों को सामान व्यवहार दिलाना था.
किन्तु वर्तमान
समय में अनशन हो या धरने प्रदर्शन सिवाय वोटों के लालच, स्वयं के
राजनितिक हित पर आन टिके है इनमे समाज और देश का हित विरले ही नजर आता है. हाल में
कांग्रेस की तरफ से ऐलान किया गया था कि दलितों पर हो रहे अत्याचार के ख़िलाफ आवाज
उठाने के लिए राहुल गांधी राजघाट पर एक दिन का उपवास करेंगे. लेकिन जिस दिन उपवास
का वक्त आया, राहुल के भूखे रहने से कहीं ज्यादा सुर्खियां
कांग्रेसी नेताओं के छोले-भटूरे बटोर ले उड़े. इसके बाद बारी थी भाजपा की. ऐलान
किया गया कि 12 अप्रैल को देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा के सभी सांसद
एक दिन का उपवास रखेंगे. यानि के एक अनशन के विरोध में दूसरा अनशन.
मेरी दिल्ली
महिला आयोग की अध्यक्ष के प्रति पूरी सहानुभूति है. पर एक समय था जब लोगों ने दिल्ली
गैंग रेप से सबसे क्रूर हत्यारे की रिहाई पर बहाए जा रहे उनके आंसू घड़ियाली और
राजनीति से प्रेरित बताये थे. क्योंकि निर्भया के रेप के बाद पूरे तीन साल का समय
था, तब किसी ने कुछ नहीं किया. न नेताओं ने, न संसद
ने और न महिला आयोग ने. हत्यारे की रिहाई हुई उस समय दिल्ली महिला आयोग की अध्यक्ष
स्वाति मालीवाल 19 दिसंबर को रात में सुप्रीम कोर्ट गईं. जबकि दिल्ली हाईकोर्ट का
फैसला 18 दिसंबर की दोपहर को आ गया था. तब सवाल उठा है कि स्वाति 24 घंटे से
ज्यादा समय तक क्या कर रहीं थीं, जो दूसरे दिन रात में सुप्रीम कोर्ट
पहुंचीं? इसके बाद निर्भया के साथ सबसे ज्यादा बर्बरता करने वाले उस अपराधी को
आम आदमी पार्टी की ओर से दस हजार रूपये और सिलाई मशीन भेंट की थी. कुछ ऐसे सवाल है
जो इस अनशन पर सहानुभूति के साथ सवाल भी खड़े कर रहें है.
अतीत में देखें
तो गांधी जी अहिंसा और सत्याग्रह के तहत कई बार भूख हड़ताल किया करते थे. उन्होंने
अपने जीवनकाल में करीब 15 उपवास किए, जिनमें से तीन बार इनकी अवधि 21 दिन
रही. इन तीनों उपवासों में गाँधी जी का कोई व्यक्तिगत या राजनितिक लाभ नहीं था
केवल समाज हित के लिए किये गये प्रयास थे. लेकिन आज भूख हड़ताल और धरने प्रदर्शन
सियासी लाभ के लिए किये जा रहे है. इनमें समाज और देश से कोई सरोकार नहीं है बल्कि
यूँ कहिये कि खुद के सियासी लाभ के लिए इस जनता के सबसे मजबूत हथियार की गरिमा को धूमिल
किया जा रहा है.

शायद इसी वजह से
आज की तारीख में जब भी आम लोगों की बातचीत में अनशन या धरना प्रदर्शन शब्द का
जिक्र आता है तो लोगों का पहला सवाल ये होता है कि ये कौनसी पार्टी बनाएगा या आने
वाले समय में कहाँ से चुनाव लड़ेगा. कोई ये नहीं सोचता कि जो व्यक्ति अनशन कर रहा
है उसकी तकलीफ क्या है. ज्यादातर लोगों के लिए धरना प्रदर्शन और अनशन का मतलब राजनितिक
ड्रामा, नारेबाजी और अफरातफरी का माहौल होता है. लेकिन इस सबके लिए जिम्मेदार कौन
हैं.?
राजीव चौधरी
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