कोशिश तो एक ऐसी अवधारणा बनाने की थी कि यदि कोई साधू या सन्यासी भगवा
वस्त्रों में खड़ा दिखे तो अन्य लोग उसके हमलवार होने के संभावना व्यक्त करें और यह
समझे कि पास में खड़ा यह आदमी कहीं अचानक उन पर हमला न कर बैठे। लेकिन हैदराबाद की
एक निचली अदालत ने इन सब मनसूबों पर पानी फेरते हुए 11 साल पहले हुए मक्का मस्जिद धमाके के
आरोपी स्वामी असीमानंद समेत सभी अभियुक्तों को बरी कर दिया है। शुरुआत में इस
धमाके को लेकर चरमपंथी संगठन हरकत उल जमात-ए-इस्लामी यानी हूजी पर शक की उंगलियां
उठी थीं। लेकिन तीन सालों के बाद यानी 2010 में पुलिस ने ‘‘अभिनव भारत’’ नाम के संगठन से जुड़े स्वामी असीमानंद
समेत लोकेश शर्मा, देवेंद्र
गुप्ता और आर एस एस की साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर को धमाके का अभियुक्त बनाया गया
था।
बहरहाल, कोर्ट ने
सबूतों के अभाव में इन सभी को बरी तो जरूर कर दिया है, लेकिन वो दाग बरी कब होंगे जो इन हमलों
के बाद देश की आत्मा हिन्दू संस्कृति पर लगाये गये थे। इन हमलों के 6 वर्ष बाद यानि साल 2013 देश की संसद का बजट सत्र शुरू होने से
ठीक एक दिन पहले कांग्रेस पार्टी के अधिवेशन में देश के तत्कालीन केंद्रीय गृह
मंत्री सुशील कुमार शिंदे ने आतंकवाद का रंग और धर्म तलाश करते हुए ‘‘भगवा आतंकवाद’’ जैसे शब्द को घड़ा था और इन हमलों को
आधार बनाकर कुछ हिन्दू संगठनों का नाम लेते हुए उन्हें भगवा आतंकी तक कह डाला था।
गिरफ्तारी के बाद साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर के साथ अमानवीय व्यवहार किया
गया उन्हें एक खंभे से बांधकर पीटा गया। उनके शिष्यों के हाथों उन्हें चमड़े के
बेल्ट से पिटवाया गया। उनके भगवा वस्त्रों को उतारकर उन्हें जबरदस्ती दूसरे कपड़े
पहनाए गए। अश्लील फिल्में दिखाने के साथ-साथ साध्वी के साथ अमानवीयता की वे सारी
हदें तत्कालीन सरकार ने अपने राजनितिक फायदे के लांघी जिसे एक इन्सान होने के नाते
कोई भी स्वीकार नहीं कर सकता।
यदि एक पल को मान भी लिया जाये कि साध्वी दोषी थी तो क्या उनके साथ जांच के
दौरान हुई इस निर्ममता की पार हुई हदों को भारतीय संविधान इज़ाजत देता है? यदि नहीं तो एक महिला और साध्वी के साथ
यह पाप क्यों किया गया। इन सवालों के जवाब मन को द्रवित करते हैं। जबरन धर्म पर
दाग लगाया, संस्कृति
को तार-तार किया और भारतीय धराधाम पर अतीत में हुई वो सब बर्बरता और पाप जो
मध्यकाल के मुगल शासकों ने यहाँ किये थे। साध्वी के साथ हुई घटना ने क्या पुनः उस
दुःख को ताजा नहीं किया?
क्या किसी एक झूठी घटना से प्रत्येक हिन्दू आतंकी हो जायेगा या भगवा रंग को
आतंकी कह देने से वह भय का प्रतीक बन जायेगा? क्या इसे देखकर सहज ही महसूस नहीं हो
जाता है कि भारत में धर्मनिरपेक्षता की आड़ में सिर्फ बहुसंख्यक वर्ग की आत्मा को
छला गया? ऐसा नहीं
है कि यह सवाल सिर्फ हम कर रहे हैं बल्कि इन सवालों के जवाब तो खुद पूर्व
राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी अपनी पुस्तक ‘‘कोअलिशन इयर्स’’ में मांगते दिखाई दिए। प्रणब मुखर्जी
ने अपनी किताब में लिखा है- मैंने वर्ष 2004 में कांची पीठ के शंकराचार्य जयेंद्र
सरस्वती की दीपावली के दिन गिरफ्तारी पर सवाल उठाए थे। एक कैबिनेट बैठक के दौरान
मैंने गिरफ्तारी के समय को लेकर काफी नाराजगी जताई थी। मैंने पूछा था कि क्या देश
में धर्मनिरपेक्षता का पैमाना केवल हिन्दू संतों महात्माओं तक ही सीमित है? क्या किसी राज्य की पुलिस किसी मुस्लिम
मौलवी को ईद के मौके पर गिरफ्तार करने का साहस दिखा सकती है?
वे लिखते हैं कि हिन्दू बाहुल्य देश में, हिन्दू समाज के सबसे बड़े संत को, हिंदुओं के सबसे बड़े त्योहारों में से
एक दीपावली के दिन गिरफ्तार करने की बात क्या 2004 से पहले सपने में भी सोची जा सकती थी? परन्तु, यह दुर्भाग्यपूर्ण दिन हिंदुस्तान को
देखना पड़ा। 11 नवम्बर, 2004 को हत्या के आरोप में कांची पीठ के
शंकराचार्य जयेंद्र सरस्वती को आंध्रप्रदेश की पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया था। उस
समय डॉ. मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री और प्रणब मुखर्जी रक्षा मंत्री थे। प्रधानमंत्री
मनमोहन सिंह तो कुछ नहीं बोले, परंतु
प्रणब मुखर्जी ने इस प्रकरण में अपनी नाराजगी प्रकट की। ;जैसा कि उन्होंने अपनी पुस्तक में लिखा
हैद्ध परन्तु कांग्रेस सरकार पर उनकी नाराजगी का कोई असर नहीं हुआ। उनके इस प्रश्न
का उत्तर भी किसी ने नहीं दिया कि क्या ईद के दिन इसी प्रकार किसी मौलवी को
गिरफ्तार करने का साहस दिखाया जा सकता है? कांग्रेस ने इस गिरफ्तारी पर तमिलनाडु
सरकार से कोई सवाल नहीं पूछा और न ही किसी प्रकार का विरोध ही किया। उस समय आम
समाज ने यह मान लिया था कि हिन्दू धर्मगुरु की गिरफ्तारी के मामले में जयललिता की
सरकार को केंद्र की संप्रग सरकार का मौन समर्थन प्राप्त है। परन्तु, हिंदू प्रतिष्ठान को बदनाम करने का यह
षड्यंत्र असफल साबित हुआ न्यायालय ने शंकराचार्य जयेन्द्र सरस्वती एवं अन्य पर लगे
सभी आरोप खारिज कर दिए। उस तरह आज असीमानन्द और साध्वी प्रज्ञा ठाकुर पर लगे आरोप
खारिज हुए हैं।
भगवा रंग एक बार फिर बेदाग दिखाई दिया क्योंकि अध्यात्म, त्याग तपस्या बलिदान वीरता, का ‘‘रंग भगवा’’ हमारे मूल चेतन आत्म रंग और ऋषियों-मुनियों
की थाती रहा है। आध्यात्म परहित बलिदान परंपरा, भगवा रंग से अभिव्यक्त हुआ। वीर
सिक्खों के पताके हो या भारतीय धर्म ध्वज पताका इस रंग को हमेशा से भारतीय जन
समुदाय आत्मसात करता आया है। किन्तु पिछले कुछ सालों में भगवा आतंक, हिन्दू आतंक जैसे कुछ शब्दों की माला
गूथकर देश के राजनेताओं ने अरबो वर्ष पुरानी संस्कृति और एक अरब हिन्दुओं के गले में
लटका दी लेकिन अब असीमानंद की रिहाई के बाद एक बार फिर राजनीतिक दलों को विचार
करना चाहिए कि धर्मनिरपेक्षता के नाम पर वह जिस प्रकार का व्यवहार बहुसंख्यक वर्ग
की भावनाओं, धर्म और
संस्कृति के साथ कर रहे हैं क्या वह धर्म और देशहित में है?
-राजीव चौधरी
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