सारी दुनिया से न तो महर्षि का परिचय हुआ, ना ही महर्षि के उद्देश्यों को वे समझ
सके इसलिए ऐसे अपरिचित व्यक्तियों के संबंध में तो सोचना भी क्या ?
मैं उन महानुभावों के संबंध में सोच रहा हू जो महर्षि का अपने को अनुयायी
कहते हैं। गुरुवर दयानन्द के नाम की जय बोलते हैं ऋषि बलिदान दिवस, जन्मोत्सव और बोधरात्रि धूमधाम से
मनाते हैं।
महर्षि के कार्यों से, उनके
उद्देश्यों से आत्मिक संबंध रखने वाले देश-विदेश में बड़ी संख्या में सदस्य हैं।
इतनी बड़ी संख्या व विस्तार होने के पश्चात् भी ऋषि की भावना को, उनके कार्यों को वह गति नहीं मिल रही, वह अधूरे सपने पूरे नहीं हो पा रहे जो
अब तक हो जाना चाहिए था।
किसी भी कार्य की सफलता में तन-मन-धन आधार होता है। कहीं तन का, कहीं मन का, कहीं धन का महत्त्व कार्य के स्वरूप के
अनुसार निश्चित होता है। किन्तु तन और धन के अतिरिक्त मन सबसे महत्वपूर्ण है, यदि मन नहीं है तो कोई संकल्प नहीं हो
सकता, कोई
संकल्प नहीं तो किसी कार्य में पूर्ण समर्पण नहीं हो सकता और बिना समर्पित भाव से
किया कोई भी प्रयास मात्र औपचारिकता तक सीमित रह जाता है, जिसका ऊपरी रूप कुछ होता है और आन्तरिक
कुछ और।
आर्य समाज की स्थापना उन उद्देश्यों को लेकर की गई थी जिनका अभाव समाज को
दुःख, सन्ताप, अशान्ति, भय के दावानल में ले जा रहा था। असत्य
को सत्य से अधिक महत्त्वपूर्ण बताया जा रहा था। धार्मिक मान्यतायें अन्धविश्वास, कुरीतियों के नीचे दब रही थीं मानवता
पर कुछ तथाकथित वर्ग ने अपने अधिकारों का दायरा बढ़ाते हुए दूसरे वर्ग को उपेक्षित, न केवल उपेक्षित अपितु प्रताड़ित, अपमानित कर विधर्मी होने पर मजबूर कर
रहे थे। ऐसे समय में आर्य समाज की स्थापना हुई।
महर्षि को हुआ बोध उसकी प्रसन्नता के ढ़ोल बजा बजाकर अपने को गौरवान्वित कर
रहे हैं और दूसरों को बोध करवाने में लगे हैं। किन्तु विडम्बना है हमें अपने बोध की चिन्ता नहीं।
मानव समाज का बहुत बड़ा भाग चित्रों, प्रतिमाओं की पूजा से, इमारतों, नदियों से जीवन की पवित्रता व सफलता
मान रहा है। दर्शन लप्त है प्रदर्शन ही जीवन का उद्देश्य बनकर सिमिट गया है। इसकी
निन्दा, कटाक्ष हम करने में चूकते नहीं हैं। किन्तु हम
कहॉं खड़े हैं ?
दयानन्द की जय, आर्य समाज
के 10 नियमों की
श्रेष्ठता का, तर्क के
दौरान उदाहरण, संसार के
सर्वोत्तम ईश्वरीय ज्ञान की दुहाई बस! क्या महर्षि के कार्यों को इतना कुछ आगे
बढ़ायेगा?
महर्षि को बोध हुआ जिससे जीवन परोपकारी, ईश्वर के प्रति अटूट विश्वासी, ज्ञानमय, निर्भीक, त्यागी, तपस्वी, सत्याचरण से पूर्ण, सर्वहिताय, राष्ट्र समर्पण की भावना से पूर्ण था।
हम किसका अनुसरण कर रहे हैं ऋषि का या किसी अन्य दलगत निकृष्ट विचारधारा का
? आलस्य, प्रमाद, स्वार्थ से लिप्त व्यक्ति महर्षि का
अनुयायी कदापि नहीं हो सकता। ऐसे व्यक्तियों ने ही महर्षि को, आर्य समाज को बदनाम किया, विघटित किया है।
महर्षि ने हमें एक ऐसा मार्ग दिखा दिया जो वर्षों से अन्धकार में छिपा दिया
गया था। अपनी समर्थ्य, योग्यता
और पूर्ण समर्पण से महर्षि ने उस पर स्वयं चलना प्रारम्भ किया, सफर लम्बा था, पूरा सफर तो नहीं कर पाये किन्तु जितना
किया वह संसार के लिए आश्चर्य बन गया। शेष कार्य हमें पूरा करना था। हम उसके
उत्तराधिकारी हैं, वारिस हैं
हम पर ही उसके कार्य को पूर्ण करने की सारी जवाबदारी है। क्या हममें ऋषि के जीवन
का वह समर्पण, लगन, सत्यनिष्ठा का भाव विद्यमान है ? यदि नहीं तो औपचारिकता का जीवन कागज के
फूल के जैसा है जो दिखता तो सुन्दर है परन्तु न खुशबू, न कोई लाभ। इसीलिए यदि अभी तक अपनी
मंजिल से बहुत दूर हैं, अब क्योंकि
हमें अभी तक कर्त्तव्य बोध नहीं हो पाया, फिर हमें बोध कब होगा ?
भविष्य में ऋषि बोधोत्सव मनाते समय अपने बोध के प्रति भी सजग रहें, तभी ऋषि बोधोत्सव मनाना सार्थक होगा।
लेख- प्रकाश आर्य मंत्री सार्वदेशिक आर्य प्रतिनिधि सभा
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