भौतिक उन्नति प्रगति, विकास और
ज्ञान का सम्बन्ध शिक्षा से है। शिक्षा अक्षर ज्ञान, पुस्तकीय ज्ञान, सूचना संग्रह, अच्छे नम्बर और डिग्रियों तक सीमित है।
शिक्षा शारीरिक सुख भोगों तक सीमित है। विद्या आत्मिक उन्नति परमात्म-चिन्तन और
जीवन को श्रेष्ठ एवं पवित्र बनाती है। जीवन में धार्मिकता, आधुनिकता, नैतिकता, सदाचार शिष्टाचार आदि की भावना जाग्रत
करती है। विद्या सुखी नीरोगी प्रसन्नता जीवन की कुंजी कहलाती है तभी कहा है, ‘‘विद्वाविहीनः पशुभिः समानः’’ विद्या हीन व्यक्ति पशु के समान होता
है। विद्या से ही व्यक्ति विद्वान बनता है। शिक्षा से तरह-तरह का ज्ञान तो एकत्र
हो जायगा, मगर सच्चे
अर्थ में आत्मज्ञानी तथा विद्वान नहीं हो सकता है।
भारत सदा से विद्या का उपासक रहा है। यूरोप ने शिक्षा के क्षेत्र में बहुत
उन्नति की है। मगर जीवन से विद्या और परमार्थ विद्या में पिछड़ गया। विद्या से ही
मनुष्य सच्चे अर्थ में मानव बनता तथा कहलाता है। शास्त्र कहते हैं- ‘‘विद्या सा या विमुक्तये’’, सच्ची विद्या वह है जो हमें वचनों, बुराईयों, दोषों एवं अवगुणों से छुड़ाए। हमारे
अन्दर प्रभुता से हटकर देवत्व की भावना जाग्रत करें। जो हमें जीवन का सत्य स्वरूप
और सन्मार्ग बताए। सच्ची विद्या का पढ़ना-समझना जीवन का असली स्लेबस है। आज स्कूलों, कालेजों एवं विश्वविद्यालयों में भौतिक
ज्ञान व शिक्षा पर तो पूरा समय, शक्ति, धन लगाया जा रहा है। जीवन की असली
आत्मपरमात्म विद्या पर कोई ध्यान नहीं दिया जा रहा है। उसी का परिणाम है कि आदमी
सच्चे अर्थ में इन्सान नहीं बन पा रहा है। जिसमें इन्सानियत, मनुष्योचित, गुण, कर्म, स्वभाव और आकर्षण हो।
‘‘विद्या धर्मेण शोभते’’ विद्या धर्म से बढ़ती, फलती-फूलती और शोभा प्राप्त होती है।
विद्या से ही जीवन में आर्ट ऑफ लिविंग की कला आती है। जीवन में यदि जीवन नहीं तो
चाहे कितना भी भौतिक ज्ञान, सुख-साधन, भोग पदार्थ एकत्र कर लें तब भी जीवन
अपूर्ण तथा अधूरा ही रहता है। शिक्षा स्टैंडर्ड ऑफ लिविंग को बढ़ाती है और विद्या
स्टैंडर्ड ऑफ लाईफ को ऊंचा ले जाती है। विद्या धर्म युक्त जीवन जीते हुए धर्म अर्थ
काम मोक्ष तक ले जाती है। यही जीवन का सत्य लक्ष्य है। इस लक्ष्य की प्राप्ति के
लिए वर्तमान भौतिक शिक्षा में कुछ पढ़ाया और बताया नहीं जा रहा है। इसलिए वर्तमान
शिक्षा विद्या से रहित अधूरी है।
वेद का सन्देश ‘विद्या च अविद्या, च अविद्यो च’’ भौतिक ज्ञान के साथ मात्र आध्यात्म
विद्या दोनों का समन्वय करके चलो तभी जीवन-जगत में सुख-शान्ति प्रसन्नता
विश्वबन्धुत्व की भावना बनेगी। उपनिषद भी कहते हैं ‘विद्यया अमृतं अश्नुते’’ विद्या से अमृतत्व ;आनन्दद्ध की प्राप्ति संभव है। शिक्षा
से भौतिक सुख भोग पदार्थ तो मिल जायेंगे, मगर सच्चा आत्म आनन्द नहीं मिलेगा।
सच्चे आनन्द के खजाने का ताला तो आत्मविद्या की कुंजी से ही खुलेगा। जीवन जगत को
जितनी भौतिक भिक्षा ;ज्ञानद्ध
की जरूरत है, उतनी ही
आत्म विद्या की भी आवश्यकता है। तभी वर्तमान समस्याओं, उलझनों, विवादों, दुःखों, कष्टों अशान्ति आदि का समाधान संभव है।
आज शिक्षा बढ़ रही है। जीवन की असली विद्या घट रही है। भारत का जीवन-दर्शन रहा है
शिक्षा-विद्या, भोग योग, भौतिकता आध्यात्मिकता, शरीर-आत्मा, प्रकृति परमात्मा आदि का सन्तुलन एवं
समन्वय करके चलो। तभी जीवन-जगत सन्मार्ग की ओर प्रेरित रहेगा। भारतीय शिक्षा दर्शन
में विद्यार्थी और विद्यालय बोला जाता है। जिसका सीधा सम्बन्ध विद्या के साथ है, न कि शिक्षा के साथ है। शिक्षा का
सम्बन्ध इहलोक के साथ है और विद्या का सम्बन्ध इह श्रेष्ठ जीवन तथा परलोक दोनों के
साथ है। आर्य समाज डॉ महेश विद्यालंकार
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