प्रति वर्ष की भांति इस वर्ष
भी विश्व पुस्तक मेला का आयोजन दिल्ली के प्रगति मैदान पर किया गया था, जो कि 6 से
14 जनवरी तक लगा हुआ था और सुबह 11 बजे से आरम्भ होकर शाम 8 बजे तक चला करता था ।
अन्य वर्षों की तरह इस वर्ष भी जाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ, परन्तु इस बार टिकट
लेकर जाना नहीं पड़ा, क्योंकि “दिल्ली आर्य प्रतिनिधि सभा” की ओर से एक पास (प्रवेश
पत्र) मिला हुआ था । प्रत्येक वर्ष की तरह इस वर्ष भी “दिल्ली आर्य प्रतिनिधि सभा”
की ओर से हॉल नम्बर 12-A में 282-291वां स्टाल और 7 नम्बर हॉल पर 161 नम्बर स्टाल
में पुस्तक विक्रय या पुस्तक वितरण किया जा रहा था ।
सभा की ओर से मुझे अवसर मिला
सेवा देने का इस विश्व पुस्तक मेला में जिसमें मेरा मुख्य कार्य था लोगों को उनके
विचार व आवश्यकता के अनुरूप पुस्तक के लिए सुझाव देना तथा पुस्तक विक्रय करना,
पुस्तकों की विशेषता समझाना, उनकी कोई व्यक्तिगत, व्यवहारिक सामाजिक तथा
आध्यात्मिक विषयों से सम्बंधित समस्यायें अथवा शंकायें हों तो उनका समाधान करने का
प्रयत्न करना इत्यादि । मुख्यतः “आर्ष साहित्य प्रचार ट्रस्ट” से प्रकाशित महर्षि
दयानन्द जी सरस्वती द्वारा प्रणित अमर ग्रन्थ “सत्यार्थ प्रकाश” को वितरण करने में
बहुत आनन्द आया, जो कि हर एक व्यक्ति या हर एक परिवार में पहुँचाने की भावना से 10
रुपये के मूल्य में वितरित किया जा रहा था । 7 नम्बर हॉल के स्टाल में वितरण हेतु
लिए गए एक भी सत्यार्थ-प्रकाश हमने नहीं छोड़ा बल्कि मेला के अन्तिम क्षण पर्यन्त भी
हम बांटते रहे ।
हमने तो यह विचार किया कि
वैसे तो ऋषिऋण से उऋण होना कठिन ही है, उनकी हम सब के ऊपर हुई कृपावृष्टि को ध्यान
में रखते हुए, परन्तु कुछ मात्रा में तो न्यून किया ही जा सकता है, इस अमर ग्रन्थ
को घर-घर पहुँचाने के ध्येय से युक्त इस स्वल्प प्रयास के माध्यम से । जहाँ एक तरफ
अनेक विषयों से सम्बन्धित हिन्दी, संस्कृत, ओडिया, तेलगु, बंगाली, उर्दू, और अनेक
भारतीय भाषाओँ की पुस्तकें उपलब्ध हो रही थी तो एक तरफ अंग्रेजी जर्मनी, स्पेनिश,
फ्रेंच, अरबिक, इटालियन, जापानीज आदि विदेशी भाषाओँ की पुस्तकें भी पाठकों को
उपलब्ध हो रही थीं।
पाठकों के लिए जहाँ बाईबल और
कुरान जैसी अनार्ष ग्रंथों को भी उनके अनुयायी नि:शुल्क वितरित कर रहे थे तो हम सब
मनुष्यों के कल्याणार्थ ईश्वर प्रदत्त वेदज्ञान तथा वेदानुकुल अनेक ग्रंथों को
आर्य समाज की ओर से दिल्ली आर्य प्रतिनिधि सभा के तत्वावधान में 10 से 25 प्रतिशत
की छूट में वितरित किये जा रहे थे। सत्यार्थ प्रकाश ग्रन्थ को अत्यन्त सेवाभावी
सभी आर्यगण, यहाँ तक कि माताएँ भी स्वेच्छापूर्वक बहुत ही उत्साह व रूचि के साथ
वितरित कर रहे थे।
इस भव्य मेला में जहाँ नये
पुराने अनेक आर्य समाजियों से मिलने का अवसर प्राप्त हुआ वहीं भिन्न-भिन्न
मत-मतान्तरों के लोगों से भी मिलना हुआ, उनके विचारों को भी जानने-समझने का मौका
मिला। भारत-भर के अनेक प्रान्तों से पधारे हुए अनेक भाषा-भाषियों के साथ ओडिया,
गुजराती आदि में वार्तालाप के साथ-साथ विदेशियों से भी अंग्रेजी भाषा में
वार्तालाप करते हुए अपने वैदिक विचारों का आदान-प्रदान करना आनन्ददायक रहा। अपने
स्टाल में सब के साथ मिल कर कार्य करने से दूसरों से बहुत प्रेरणा भी मिली।
पहले ही दिन अत्यन्त सेवाभावी
आचार्य सत्यप्रकाश जी शास्त्री को मैंने देखा कि अकेले ही प्रगति मैदान के एक
नम्बर गेट से अपने स्टाल तक एक पानी के जार को कन्धे के ऊपर उठाकर ले आये थे जिससे
उनका पूरा शरीर और कपड़े भीग गए थे। वह कभी भी किसी प्रकार के सेवाकार्य में पीछे
नहीं हटते थे, जैसे कि अन्तिम दिवस में भी रात्रि के 2 बजे तक पुस्तकों को गाड़ियों
से उतारने में लगे रहे । यह तो एक उदाहरण मात्र है, ऐसे ही अनेक कार्यकर्ताओं ने
समर्पित भावना के साथ सेवा दी और ऋषि के मिशन को आगे बढाया । उसमें छोटे छोटे
बालकों से लेकर माताओं और बुजुर्ग महानुभावों का भी अत्यन्त सहयोग रहा ।
इस पुस्तक को देखने के बाद
पता चला कि कई लेखक/लेखिका ऐसे भी होते हैं जो बिना किसी तथ्यात्मक गवेषणा के कुछ
भी अप्रामाणिक बातें लिख देते हैं । महर्षि दयानन्द जी ने स्वलिखित आत्म चरित
में न कभी कोई ऐसे प्रसंग का उल्लेख किया और न ही कोई ऐसी घटना उनके साथ होने की
सम्भावना थी क्योंकि न ही शिव-पार्वती उनके इष्टदेव थे और न ही उनको विवाह करने की
इच्छा थी जिससे कि उस प्रकार के स्वप्न आते । क्योंकि उनको बाल्यकाल से ही यह
निश्चय हो गया था कि ये सच्चे शिव नहीं हैं, सच्चा शिव तो निराकार ईश्वर ही है
जिसकी खोज करनी चाहिए और छोटी अवस्था में ही वैराग्य हो जाने के कारण विवाह आदि के
लिए भी कोई इच्छा शेष नहीं रही थी अतः उनका लिखना अप्रासंगिक तथा अप्रामाणिक होने
से मानने योग्य नहीं है ।
इसी प्रकार अनेक ग्रन्थ होते
हैं जिनका न कोई सिर होता है और न पैर । तर्क व प्रमाणों से रहित, अवैज्ञानिक,
मनगढन्त, काल्पनिक, असत्य, यथार्थता से दूर ऐसे अनेक ग्रन्थ आपको मिलेंगे इस विश्व
पुस्तक मेला में जिनको जन सामान्य बिना सत्यासत्य के निर्णय किये ही खरीद लेते हैं
और अपने अमूल्य समय, धन, बुद्धि आदि को नष्ट कर देते हैं । इस प्रकार के करोड़ों
लेखकों के लाखों पुस्तकों के हजारों स्टालों में से एक/दो ही ऐसे आर्य समाज से
सम्बंधित प्रकाशन या स्टाल होते हैं जो कि वेद तथा वेद के अनुकूल ग्रंथों के
माध्यम से सत्य को जानने-जनाने के लिए, तथा उसके प्रचार-प्रसार के लिए तन, मन, धन
से संलग्न व समर्पित रहते हैं।
अतः हमें यह अवश्य बुद्धि
पूर्वक निर्णय कर लेना चाहिए कि हमें किन ग्रंथों के ऊपर अपना समय, धन और बुद्धि
आदि व्यय करना चाहिए जिससे हमारी उन्नति-प्रगति हो सके फिर उसी प्रकार के शुद्ध
वैदिक पुस्तकों के स्टालों वा प्रकाशनों में ही अधिक रूचि दिखानी चाहिए तथा औरों
को भी प्रेरणा देनी चाहिए।
मैंने एक और विशेष बात देखी
कि हमारे भारतीय पुरुष और महिलाएं तो विदेशी भाषाओँ तथा सभ्यता-संस्कृति के प्रति
आकर्षित होकर उन्हीं की भाषा, उन्हीं के जैसे वस्त्र आदि धारण करने में रूचि दिखा
रहे थे तो दूसरी ओर कुछ विदेशियों को देखा जो कि हमारे भारतीय भाषा और
सभ्यता-संस्कृति से प्रेरित होकर हिन्दी और संस्कृत भाषा सीखने के लिए भारत में
आकर निवास कर रहे हैं, संस्कृत भाषा बोलते भी हैं और वस्त्र भी भारतीयों जैसे
पहनते हैं । यह सच में एक आश्चर्य की बात है कि जो वस्तु, जो मान्यता, सिद्धान्त,
हमें सहज ही प्राप्त है, हमारा धरोहर है, हमारी पैतृक संपत्ति है, उसको छोड़ कर हम
अप्राप्त की कामना कर रहे हैं अथवा उन अवैदिक मान्यताओं के पीछे दौड़ लगा रहे हैं ।
इस अवसर पर “गुरु विरजानन्द
संस्कृतकुलम्” हरिनगर, नईदिल्ली से पधारे हुए छोटे छोटे बालकों को देखा जो कि केवल
संस्कृत में ही वार्तालाप करते थे, हिन्दी भाषा उनको कम आती अथवा बिल्कुल नहीं आती
। उनके साथ भी मैंने कुछ समय व्यतीत किये । यह आचार्य धनञ्जय शास्त्री जी का ही अथक
परिश्रम और लगन का परिणाम है कि उन बच्चों के साथ साथ उनकी पत्नी और संस्कृति नाम
की छोटी सी पुत्री भी संस्कृत भाषा में ही वार्तालाप करती हैं । कुछ लोगों ने
आश्चर्य पूर्वक मुझे यह प्रश्न किया कि ये लोग गुरुकुल से बाहर जाकर कैसे व्यवहार
कर पाएंगे ? इनका जीवन तो अन्धकारमय हो जायेगा ? तो इसका समाधान करते हुए मैंने
कहा कि जैसे आप वस्तुओं को हिन्दी से अथवा अन्य भाषाओँ से जानकर उपयोग करते हैं,
ठीक ऐसे ही ये लोग उस वस्तु को संस्कृत में जानते हैं और प्रयोग करते हैं ।
प्राचीन काल में जैसे ऋषि-महर्षि और सामान्य जनता भी संस्कृत का ही प्रयोग किया
करते थे वैसे ही आजकल भी वातावरण बनाया जा सकता है । इस प्रकार यदि हम अपनी
सन्तानों को अच्छी शिक्षा दें, हमारी वैदिक शिक्षा, संस्कृत भाषा, भारतीय सभ्यता,
संस्कृति, परम्परा आदि के प्रति रूचि उत्पन्न करावें तो निश्चित है कि हर परिवार
सुख-शान्ति से युक्त होकर अपने जीवन पथ पर अग्रसर हो सकें ।
इस पुस्तक मेला में इस वर्ष
आर्य समाज के विद्वानों का आगमन न्यून ही रहा । आर्य समाज के स्टाल पर बहुत कम ही
विद्वान् पधारे हुए थे जो कि अनेक लोगों की शंकाओं का समाधान करते हुए नजर आये थे ।
हॉल नम्बर 8 में एक दिन मसालों के बादशाह महाशय श्री धर्मपाल जी की अध्यक्षता में दिल्ली
सभा के प्रधान श्री आचार्य धर्मपाल जी, महामन्त्री श्री विनय आर्य जी और अनेक आर्य
सज्जनों की उपस्थिति में आर्यसमाज दयानन्द विहार, नईदिल्ली के मंत्री श्री ईश
नारंग जी ने यज्ञ की उपयोगिता, विशेषता तथा हवन के ऊपर हुए अनेक अनुसंधानात्मक तथ्यों
की जानकारी प्रदान की । जैसे कि हमने देखा अनेक मत-पन्थ-सम्प्रदाय वाले पूरी
तन्मयता व लगन के साथ अपने अवैदिक और अप्रामाणिक विचारों को लोगों के अन्दर थोपते
जाते हैं, इसी प्रकार हमारे आर्य समाज के वैदिक विद्वान् भी यदि पूरे समर्पण के
साथ अपने वेद तथा वैदिक सिद्धान्तों को सरल व वैज्ञानिक ढंग से लोगों के सामने उपस्थापित
करते और जोर-शोर से प्रचार-प्रसार करने में रूचि दिखाते तो हर एक व्यक्ति तक अपने
वैदिक विचारों को पहुँचाने का यही एक अच्छा अवसर होता है ।
हमने कुछ कॉलेज के युवाओं को भी देखा जो कि
जगह-जगह नुक्कड़ नाटकों के माध्यम से सामाजिक बुराईयों के विरोध में अपने कुछ विचार
प्रस्तुत कर रहे थे । यदि आर्य समाज के छोटे-छोटे बालक भी हर एक सिद्धांतों को
आकर्षक व प्रेरक ढंग से इस प्रकार के नाटकों के माध्यम से लोगों के सामने
प्रस्तुति देते तो हजारों लोग आसानी से इन सिद्धान्तों, विचारों से अवगत हो जाते और
हम ऋषि के मिशन को कुछ सीमा तक अग्रसर करने में सफल हो जाते ।
कुरान और बाईबल के प्रचार में उनके कार्यकर्ता
दिन भर खड़े रहते हुए आते-जाते लोगों को कुरान और बाईबल तथा अनेक प्रकार के पत्रक
आदि प्रचार सामग्री मुफ्त में ही वितरण किया करते थे, परन्तु न हमारे पास ऐसी कोई प्रचार
सामग्री उपलब्ध थी और न ही उस प्रकार समर्पित कार्यकर्ता विद्यमान थे । हमारे आर्य
समाज के स्टाल की संख्या हो अथवा कार्यकर्ताओं की संख्या हो न्यून होने के कारण
जितने स्तर में प्रचार का कार्य होना चाहिए था उतना नहीं हो पाया, फिर भी परिणाम
संतोष जनक ही रहा ।
हमारे कुछ गुणों और कुछ दोषों को दृष्टि में रखते
हुए यह कुछ विश्व पुस्तक मेला में हुए मेरे अनुभवों को मैंने संक्षिप्त रूप में
उपस्थापित करने का प्रयत्न किया जिससे हम अपने गुणों को जान कर उन्हें और भी आगे
बढायें और जो दोष हैं उन्हें सुधार करें, उनको पुनरावृत्ति न करें तो वेद का
प्रचार-प्रसार सुगमता से करने में सफल हो सकें । धन्यवाद ।।
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