भारत वर्ष
पर्वों का देश है ऋतु परिवर्तन, महापुरूषो के जीवन पर धार्मिक
मान्यताओं या राष्ट्रीय पर्वों अथवा किसी बड़ी मानवीय उपलब्धियों पर प्रायः ये
मनाये जाते हैं। पर्व से जीवन में प्रसन्नता, ऊर्जा,
मधुरता आती है और आपसी संगठन, भाई चारे
की भावना बढ़ती है।
इन
पर्वों को मनाने के पीछे कोई दर्शन होता है अर्थात वह पर्व मानव समाज को कोई
सन्देश देता है। जैसे रावण दहन जीवन में पल रही आसुरी प्रवृत्तियों का नाश करने का,
होली दहन आपसी ईष्र्या, बुराई को दहन कर प्रेम से गले मिलने का,
दशहरा शौर्यता का, दीपावली स्वच्छता और सम्पन्नता के साथ
अन्धेरे को दीपावली की सबसे काली अमावस्या में दीपक जलाकर अन्धेरे को दूर कर
प्रकाश फैलाने का सन्देश देता है अर्थात जीवन से अज्ञान रूपी अन्धेरे से दूर होकर
ज्ञान प्रकाश से भर जावें।
किन्तु
आज समाज ऐसे जीवन उपयोगी दर्शन से दूर होकर बाहरी प्रदर्शन तक ही रह गया है। इसलिए
पर्वों से जो लाभ मिलना चाहिए वह नहीं मिल पा रहा है। केवल कुछ दिनों का मनोरंजन
ही मिल रहा है। यह पर्वों का उचित लाभ नहीं है। इसलिए पर्वों को जाने और मानें तभी
उसका सही और पूर्ण लाभ हो सकता हैं
इसी
प्रकार दुर्गोत्सव में काली को शक्ति के रूप में मानते हुए उसकी स्थापना कर 9
दिन तक उसके सामने तरह-तरह के आयोजन करके मनाते है।
किसी
ने दुर्गा का यह स्वरूप समाज के सामने समाज को एक शिक्षा देने की भावना से
प्रस्तुत किया होगा। जिसमें नारी की महानता और महत्व को दुर्गा के विभिन्न रूपों
से समझाने का दर्शन दिया है। नारी समाज और संसार के निर्माण की एक महत्वपूर्ण कड़ी
है कहा गया ‘‘माता निर्माता भवति।’’ नारी
ममत्व, प्रेम, अन्नपूर्णा, प्रथम
गुरू, परिवार व समाज की मुख्य धूरी है वही वह अपने शक्तिशाली रूप से
दुष्टों का मर्दन करने वाली वीरांगना भी है।
काश
दुर्गा शौर्यता के इस रूप को नारी जाति अपने जीवन में अपना लें तो नारी जाति
असुरक्षित नहीं रहेगी।
ये
हाथ जहां गहनों से सजाने के लिए है वहीं आवश्यकता पड़ने पर शस्त्र भी उठाले यह
प्रेरणास्पद चित्र नारी जाति को शिक्षा देता है। रानी दुर्गावती, लक्ष्मीबाई
जैसी वीरांगनाओं ने दुर्गा के इस स्वरूप को आत्मसात किया है।
दुर्भाग्य
से शक्ति का प्रतीक उस माँ से शौर्यता का समाज से दुष्प्रवृत्ती हटाने का अदम्य
साहस की शिक्षा नहीं ली जा रही है। मात्र मनोरंजन के लिए संगीत, नृत्य
और निरर्थक हास्य कार्यक्रमों का आयोजन इसका उद्देश्य रह गया। इतने लम्बे समय तक
चलने वाले त्यौहार से कोई अच्छा सन्देश जब समाज को मिले तो उसका सही लाभ है।
जैसे
काली के 8 हाथ इस बात का प्रतीक है कि चारों वर्ण ब्राह्मण, क्षत्रिय,
वैश्य, शूद्र जब एक साथ होगें तो शक्ति का रूप बनेगा।
अर्थात दो हाथ ब्राह्मण के, दो
हाथ क्षत्रिय के, दो हाथ वैश्य के, दो हाथ
शूद्र के इकठ्ठे हो जावेगे तभी ये सनातन धर्म सशक्त होगा, उंच नींच
के भेदभाव समाप्त होगें। यही दुर्गा के 8 हाथों का
सन्देश है।
हम
अज्ञानता में जिसकी पूजा करते हैं, जिसे महान बताते हैं किन्तु कई स्थानों
पर देखा गया फिल्मी धुनों पर जोर-जोर से फूहड़ता के गीत बजाये जाते हैं भद्दे नृत्य
किये जाते हैं एक दृष्टि से यह उस दुर्गा का अपमान है। यदि दुर्गा पूजा करनी है।
तो उसके चित्र तक सीमित न रहो, उसके स्वरूप से जो चरित्र प्रदर्शित
होता है उसे अपनानें की आवश्यकता है।
इन्हीं
दिनों में कुछ अप्रिय घटनाऐं और दुःखदायी परिणाम भी घटित होते हैं, उसके
प्रति भी हमें ध्यान देना आवश्यक है। कुछ बिन्दु इसके सन्दर्भ में निम्नानुसार हैं
-
अपने
उत्सव को हम ही कभी-कभी अज्ञानता के कारण अथवा अन्य किसी साम्प्रदायिक भावना से
प्रेरित होकर उसके स्वरूप को बिगाड़ देते हैं और अपने कार्यों से अनेक परिवारों और
समाजों को परिवारों के लिए व्यवधान उत्पन्न कर देते हैं। इसमें मुख्य रूप से बड़ी
तेज अवाज में और देर रात तक माइक, ध्वनि प्रसारण और सबसे ज्यादा दुःखदायी
साधन डीजे का अनियन्त्रित उपयोग करते हैं। संगीत की मधुरता कम आवाज में कर्ण प्रिय
होती है जोर से तेज आवाज में एक स्पर्धा की भावना से बजाए जाने वाला संगीत कई
लोगों को जैसे बीमार बच्चों के लिए ये हानिकारक होता है और डीजे हदय पीड़ित लोगों
के्र लिए हानिकारक होता है। इससे वह व्यक्ति आपके इस प्रदर्शन को अच्छा नहीं कहता,
धन्यवाद नहीं देता। दुःखी मन क्या कहेगा ? स्वयं
विचार करें।
हमारा
उद्देश्य इन धार्मिक आयोजनों से सबको सुख, शान्ति और
प्रसन्नता का होना चाहिए।
नव
दिन का समय एक ऐसा समय है जिससे हजारों लोग एक अच्छी भावना को लेकर एकत्रित होते
है। इस समय का उपयोग अच्छे भाषणों, कवि सम्मेलनों, नाटक आदि
से करके परिवार, समाज और राष्ट्र को एक अच्छा सन्देश दे सकते
हैं। जिस प्रकार महाराष्ट्र मंे बाल गंगाधर तिलक ने गणेश उत्सव के नाम पर हजारों
लोगों को इकट्ठा किया था। ऐसा ही कुछ इसमें भी होना चाहिए।
विशेष
करके श्रद्धालुओं में एक शिष्टता, संयम और सादगी का व्यवहार होना चाहिए।
उच्छंखलता, अश्लीलता, पहरावे
से स्पष्ट होती है। एक देवी के सामने जब हम जाएं तो ध्यान रखना चाहिए।
देखा
ये जाता है कि फिल्मी स्टाईल में अनेक बच्चे भीड़ में घुसकर अव्यवस्था फैलाते हैं
इस पर पालकांे को और आयोजकों को ध्यान देना चाहिए।
कार्यक्रम
नौ दिन तक होते हैं किन्तु उनकी एक समय की सीमा तय होना चाहिए। ताकि जो लोग बीमार
हैं जिन्हें डाॅक्टरी सलाह से आराम की आवश्यकता है, उन्हें
परेशानी न हो।
दुर्गा
स्थापना के लिए जो स्थान बनाये वह स्थान ऐसा होना चाहिए जिससे आवागमन प्रभावित न
हो। आवागमन अवरूद्ध होने से भीड़ बढ़ती है कभी-कभी मार्ग जाम हो जाता है, विवाद
बढ़ते हैं।
इसलिए
धार्मिक कार्यक्रम का आयोज किसी प्रकार की अव्यवस्था फैलाने के लिए नहीं होना
चाहिए। धर्म का उद्देश्य समाज को सुख शान्ति सहयोग करना होता है।
कम
से कम इन दिनों में किसी भी प्रकार का नशा न करने का संकल्प लेना चाहिए। ताकि नशे
की स्थिति में ही आदमी मानसिक सन्तुलन खोकर अप्रिय घटनाओं को जन्म देता है। इस नौ
दिन में बड़े बड़े कई कार्यक्रम होते है जिसमें जनमानस इकट्ठा होता है। उसमें से कुछ
व्यक्ति नशे में होकर मिल जायें तो वहां अव्स्था होने का खतरा बना रहता है। जो कभी
कभी साम्प्रदायिक विवादों का कारण भी बन जाता है।
पूरे
देश की कई रिपोर्ट हैं, इन दिनों में ही नवयुवक बच्चों को परिवार से
देर रात तक दूर रहने की स्वतन्त्रता कार्यक्रम हेतु दी जाती है और उसके परिणाम भी
गलत होते हैं। इसलिए समय पर भी नियन्त्रण रखें ताकि वे कार्यक्रम में भाग लेवें
किन्तु एक समय सीमा तक। ताकि अप्रिय घटना से हम पीड़ित न हों ।
उपरोक्त
बातें समाज हित में है, किसी की भावना को कष्ट पहूँचाने की दृष्टि से
नहीं है किन्तु एक अच्छे सन्देश के रूप में प्रस्तुत है।
प्रकाश
आर्य
सभामन्त्री (सार्वदेशिक आर्य प्रतिनिधि सभा, दिल्ली)
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