सन् 1857
में भारत का प्रथम स्वतंत्रता युद्ध लड़ा गया और सन् 1947 में
भारत स्वतंत्र हुआ। इस क्रांति के प्रचार में तात्कालीन साधु संन्यासियों का बहुत
बड़ा योगदान था। साधुओं के द्वारा नाना साहब पेशवा ने अपनी योजना का सन्देश सर्वत्र
पहुंचाया था। तीर्थ यात्रा के मिशन से नाना साहब ने लगभग समस्त उत्तर भारत का
भ्रमण कर तात्कालिक स्थिति का अवलोकन किया था। स्वामी दयानन्द सरस्वती ने भी सन् 57
के स्वाधीनता आन्दोलन में भाग लिया था ऐसा कुछ इतिहासकारों का मानना है।
स्वामी दयानन्द
सन् 57 के अन्त तक कानपुर से इलाहाबाद और फर्रूखाबाद तक गंगा के किनारे
विचरण करते रहे थे और इन वर्षो के बारे में अपने जीवन की घटनाओं को लिखते समय वे
सर्वथा मौन रहा करते थे। यह बात ‘हमारा राजस्थान’ के प्रष्ठ
275 से विदित होती है।
इस क्रांति के
विफल हो जाने पर महर्षि दयानन्द ने तात्कालिक परिस्थिति के अनुसार अपना मार्ग
बदलकर भाषण और लेख द्वारा सर्वविध क्रांति प्रारम्भ की। महर्षि दयानन्द ही वह पहले
भारतीय हैं जिन्होंने अंग्रेजों के साम्राज्य में सर्वप्रथम स्वदेशी राज्य की मांग
की थी। वे अपने अमर ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश में लिखते हैं -‘‘कोई
कितना ही करे जो स्वदेशी राज्य होता है वह सर्वोपरि, उत्तम
होता है अथवा मतमतान्तर के आग्रह रहित, अपने और पराये
का पक्षपात शून्य, प्रजा पर पिता-माता के समान कृपा, न्याय
एवं दया के साथ भी विदेशियों का राज्य पूर्ण सुखदायी नहीं है।’’
महर्षि दयानन्द
जी ने अपने ग्रन्थ आर्याभिनिय में लिखा है ‘‘अन्य
देषवासी राजा हमारे देश में न हों, हम लोग पराधीन कभी न रहे।’’ इससे
पता लगता है कि महर्षि दयानन्द सरस्वती की क्या भावना थी। राष्ट्र के संगठन के लिए
जाति-पांति के झंझटों को मिटाकर एक धर्म, एक भाषा और एक
समान वेष भूषा तथा खान-पान का प्रचार किया। आज हिन्दी भारत राष्ट्र की राजभाषा बन
चुकी है। किन्तु पूर्व में जब हिन्दी का कोई विषेश प्रचार न था, उस
समय महर्षि दयानन्द ने हिन्दी को राष्ट्र भाषा बनाने की घोषणा की, स्वयं
गुजराती तथा संस्कष्त के उद्भट विद्वान होते हुए भी उन्होंने सत्यार्थ प्रकाश आदि
ग्रन्थों की हिन्दी में रचना की थी। जबकि बंगाल के बंकिमचन्द्र तथा महाराश्ट्र के
विश्णु षास्त्री चिपलूणकर आदि प्रसिद्ध लेखकों ने अपनी रचनाएं प्रान्तीय भाषाओँ में
ही लिखी थीं।
दीर्घकालीन
दासता के कारण भारतवासी अपने प्राचीन गौरव को भूल गये थे। इसलिए महर्षि दयानन्द ने
उनके प्राचीन गौरव और वैभव का वास्तविक दर्षन करवाया और सप्रमाण सिद्ध कर दिया कि
हम किसी के दास नहीं अपितु गुरु हैं। इस प्रकार भारत भूमि को इस योग्य बनाया कि
जिसमें स्वराज्य पादप विकसित पुष्पित और फलाग्रही हो सकें।
सन् 1857
के पश्चात की क्रांति के जन्मदाता महर्षि दयानन्द सरस्वती और उनके शिष्य पं. श्याम
जी कृष्ण वर्मा जो क्रांतिकारियों के गुरु थे। प्रसिद्ध क्रांतिकारी विनायक दामोदर
सावरकर, लाला हरदयाल, भाई परमानन्द, सेनापति
बापट, मदनलाल धींगड़ा इत्यादि षिश्यों ने स्वाधीनता आन्दोलन में कभी पीछे
मुड़कर नहीं देखा। इंग्लैण्ड में भारत के लिए जितनी क्रांति हुई वह श्याम जी कृष्ण वर्मा
के ‘‘इण्डिया हाउस’’ से ही हुई। अमेरिका में जो क्रांति
भारत की स्वाधीनता के लिए हुई, वह देवता स्वरूप भाई परमानन्द के
सदुद्योग का फल है। पंजाब में श्री जयचन्द्र विद्यालंकार क्रांतिकारियों के गुरु
रहे हैं। आप डी.ए.वी. कालेज लाहौर में इतिहास और राजनीति के प्रोफेसर थे। सरदार
भगत सिंह और उनके क्रांतिकारी साथी इनसे राजनीति की शिक्षा ग्रहण करते थे। सरदार
भगत सिंह तो जन्म से ही आर्य समाजी थे। इनके दादा जी सरदार अर्जुन सिंह विशुद्ध आर्य
समाजी थे और इनके पिता श्री किशन सिंह भी आर्य सामजी थे।
सांडर्स को
मारकर भगत सिंह आदि पहले तो लाहौर के डी.ए.वी. कालेज में ठहरे, फिर
योजनाबद्ध तरीके से कलकत्ता जाकर आर्य समाज में शरण ली और आते समय आर्य समाज के
चपरासी तुलसीराम को अपनी थाली यह कहकर दे आये थे कि ‘कोई देशभक्त
आये तो उसको इसी में भोजन करवाना।’ दिल्ली में भगत सिंह, वीर
अर्जुन कार्यालय में स्वामी श्रधानंद और पंडित इन्द्र विद्यावाचस्पति के पास ठहरे
थे क्योंकि उस समय ऐसे लोगों को ठहराने का साहस केवल आर्य समाज के सदस्यों में ही
था।
गांधी जी जब
अफ्रीका से लौटकर भारत आये तब उनको ठहराने का किसी में साहस न था। लाला मुंशीराम स्वनाम
धन्य नेता स्वामी श्रद्धानंद ने ही उनको गुरुकुल कांगड़ी में ठहराया था और गांधी जी
को महात्मा गांधी की उपाधि से सुषोभित भी स्वामी श्रद्धानंद जी ने ही किया था।
स्वतंत्रता
प्राप्ति से पूर्व लगभग सभी स्थानों में ऐसी स्थिति थी कि कांग्रेस के प्रमुख
कार्यकत्र्ताओं को यदि कहीं आश्रय, भोजन, निवास
आदि मिलता था, तो वह किसी आर्य के घर में ही मिलता था। प्रायः
दूसरे लोग इनसे इतने भयभीत थे कि उनमें इनको आश्रय देने का साहस ही न हो पाता था।
हैदराबाद दक्षिण में निजाम सरकार के विरु( सत्याग्रह चलाकर जनता के हितों की रक्षा
केवल आर्यों ने ही की है। वहां पर आर्य समाज के प्रति जनता की जितनी श्रद्धा है
उतनी किसी अन्य के प्रति नहीं है।
अमृतसर (पंजाब)
में कांग्रेश का अधिवेशन करवाने का साहस अमर शहीद स्वामी श्रद्धानन्द जी में ही
था। उस समय की स्थिति को देखकर किसी भी कोंग्रेसी में इतना साहस न था जो सम्मुख
आता और कोंग्रेस का अधिवेशन करवा सकता। पंजाब केसरी लाला लाजपत राय प्रसिद्ध आर्य समाजी नेता थे उनकी देशभक्ति किसी से
तिरोहित नहीं।
राजस्थान केसरी
कुंवर प्रताप सिंह वारहट, पं. राम प्रसाद बिस्मिल और उनके साथी
पक्के आर्य समाज थे इनके सम्बन्ध में श्री मन्मथनाथ गुप्त ने जो स्वयं क्रांतिकारी
थे ने साप्ताहिक हिन्दुस्तान के 13 जुलाई 1858 के अंक
में लिखा था। इसी प्रकार के और भी अनेक उदाहरण मिलते हैं जो यह सिद्ध करते हैं कि देश की स्वतन्त्रता की लड़ाई में आर्य समाज ने
बढ़-चढ़कर हिस्सा ही नहीं लिया अपितु नेतष्त्व भी किया है। स्वदेशी प्रचार, विदेशी
वस्तुओं का बहिस्कार अछूतों को गले लगाने का प्रचार, गोरक्षा,
शिक्षा -प्रसार, स्त्रीशिक्षा , विधवा उद्दार
आदि सभी श्रेष्ठ कार्यों में आर्य समाज अग्रणी रहा है।
देश धर्म के लिये जो भी आन्दोलन और सत्याग्रह हुए
हैं उनमें आर्य जन सबसे आगे रहे हैं। यदि कोई पक्षपाती इतिहास लेखक इस ध्रुव सत्य
को अतीत के निबिड़ान्धकार में छिपाने का प्रयत्न करे तो दूसरी बात है किन्तु कोई भी निष्पक्ष सहृदय व्यक्ति इससे इन्कार नहीं कर सकता कि देश की स्वतन्त्रता और
सर्वविध कांन्ति में महर्षि दयानन्द और
उनके अनुयायी आर्य, सर्वदा अग्रणी रहे हैं।
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