अभी चार
दिन पहले ही खालिद मिर्जा नाम के आदमी ने अपनी पत्नी फैजीना को पांच लाख रूपये दहेज ना लाने पर फोन पर ही तलाक दे डाला जिसकी मीडिया में चर्चा तो हुई पर उस पर बड़े प्रोग्राम नहीं चले जो एक मुस्लिम महिला की असल समस्या थी जो उसकी असली जंग थी उसकी बजाय 27 अगस्त की सुबह
भारत के तमाम समाचार पत्रों की सुर्खियाँ देखे तो तो हाजी अली दरगाह पर महिलाओं द्वारा
जंग जीतना बताया जा रहा है कि वो अपने मौलिक अधिकारों और समानता की जंग जीत गयी, अब वो दरगाह के
अन्दर कब्र तक जा सकेगी! इस खबर से देश के मीडिया चैनल खुश है| भूमाता बिग्रेड की
नेता तृप्ति देसाई से लेकर मजार वाले हिस्से में महिलाओं के प्रवेश पर पाबंदी के
फैसले को कोर्ट में चुनोती देने वाली जाकिया सोमन और नूरजहां नियाज ने इस फैसले का
स्वागत करते हुए कहा कि कोर्ट ने महिलाओं को समानता का अधिकार दिया है।
मुझे नहीं
पता इसमें खुशी की कौनसी बात है और इससे भारतीय मुस्लिम महिलाओं को क्या लाभ होगा?
क्या अब उसे जरा-जरा सी बात पर तलाक मिलना बंद हो जायेगा? क्या तीन
तलाक़़, निकाह
हलाला और बहुविवाह को अंसवैधानिक और मुस्लिम महिलाओँ के गौरवपूर्ण जीवन जीने के
अधिकार मिल जायेंगे? क्या उसकी प्रताड़ना बंद हो जाएगी? घरेलू कलह, अत्याचारों से
पार पाने की इस इस नकली जंग में चक्कर में अपनी असली लड़ाई भूल बैठी है| बॉम्बे
हाईकोर्ट ने शुक्रवार को एक महत्वपूर्ण फैसला सुनाते हुए मुंबई में हाजी अली दरगाह
के भीतरी भाग में महिलाओं के प्रवेश पर प्रतिबंध को हटा दिया है और कहा है कि यह
प्रतिबंध किसी भी व्यक्ति के मूलभूत अधिकार का विरोधाभासी है। जबकि ट्रस्ट इसे
इस्लाम की नजर में गुनाहे-अजीम बताया है| हाजी अली दरगाह ट्रस्ट ने कहा है कि वह
हाई कोर्ट के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देगा| अल कुरआन फाउंडेशन के
अध्यक्ष मौलाना नदीमुल वाजदी ने भी दरगाह में महिलाओं के प्रवेश को गलत बताया है।
जो भी हो अब प्रश्न यह है कि क्या यह मुस्लिम
महिलाओं की जीत है? आखिर कौन थे हाजी अली जिनकी कब्र पर
जाने के लिए लोग कोर्ट तक चले गये? एक तरफ तो मुस्लिम समाज बुत परस्ती पत्थर पूजने के खिलाफ है| दूसरी
और जब कोई पीर मजार की बात आती है समस्त मुस्लिम समाज एकजुट होता दिखाई देता है|
क्या बस इसलिए कि इन पर चढ़ावे का धन बरसता है? देवबंदी उलेमा ने कहा है कि शरीअत में महिलाओं का कब्र पर जाना जायज
नहीं है| शरियत में तो कब्र भी पूजना मनाही है फिर क्यों वहां पर चादर और नकद राशि
स्वीकार की जाती है? जो लोग इस फैसले को नारीवाद से जोड़कर
उसकी जीत बता रहे क्या वो बता सकते है कि यह नारी सशक्तिकरण कैसे है? इस सवाल का जबाब भले ही किसी के पास ना
हो पर मुस्लिम पत्रकार शीबा असलम जरुर देती है वो कहती है कि भारतीय मुस्लिम समाज
में आस्था के नाम पर चल रहे गोरखधंधे का सबसे विद्रुप, शोषणकारी रूप हैं दरगाहें, जहां परेशानहाल, गरीब, बीमार, कर्ज में दबे हुए, डरे हुए लाचार मन्नत मांगने आते हैं और
अपना पेट काटकर धन चढ़ाते हैं ताकि उनकी मुराद पूरी हो सके|
दुनिया के देशों में जहां भ्रष्ट सरकारें
स्वास्थ्य, शिक्षा, वैज्ञानिक दृष्टिकोण, सामाजिक सुरक्षा जैसे अपने बुनियादी फर्ज पूरा करने में आपराधिक तौर
पर नाकाम रही हैं वहीं परेशान हाल अवाम भाग्यवादी, अंधविश्वासी होकर जादू-टोना-झाड़-फूंक, मन्नतवादी होकर पंडों, ओझा, जादूगर, बाबा-स्वामी,
और मजारों के
सज्जादानशीं-गद्दीनशीं-खादिम के चक्करों में पड़कर शोषण का शिकार होती है| ऐसे में
मनौती का केंद्र ये मजारें और दरगाह के खादिम और सज्जादानशीं मुंहमांगी रकम ऐंठते
हैं| अगर कोई श्रद्धालु प्रतिवाद करे तो घेरकर दबाव बनाते हैं, जबरदस्ती करते हैं, वरना बेइज्जत करके चढ़ावा वापस कर देते
हैं| जियारत कराने, चादर चढ़ाने और तबर्रुख (प्रसाद) दिलाने
की व्यवस्था करवाने वाले को खादिम कहते हैं, जिसका एक रेट या मानदेय होता है| अजमेर जैसी नामी-गिरामी दरगाह में
खादिमों के अलग-अलग दर्जे भी हैं, यानी
अगर आप उस खादिम की सेवा लेते हैं जो कैटरीना कैफ, सलमान खान जैसे ग्लैमरस सितारों की जियारत करवाते हैं तो आपको मोटी
रकम देनी होगी| मुंबई की हाजी अली दरगाह एक फिल्मी
दरगाह है जिसकी ख्याति अमिताभ बच्चन की फिल्म कुली से और भी बढ़ गई थी, यहां फिल्मों की शूटिंग आम बात है| पिछले
कुछ सालों से वहां के मुतवल्ली (कर्ता-धर्ता) और सज्जादनशीनों ने महिलाओं को कब्र
वाले हुजरे में न आने देने का फैसला किया है| उनका तर्क है, ‘कब्र में दफ्न बुजुर्ग को मजार पर आने
वाली महिलाएं निर्वस्त्र नजर आती हैं, लिहाजा महिलाएं कब्र की जगह तक नहीं जाएंगी, कमरे के बाहर से ही जाली पर मन्नत का
धागा बांध सकती हैं.’ 21वीं सदी की दूसरी दहाई में जब मर्दों
को भी दरगाहों से बचाना था,
ताकि वो भी इस
अंधविश्वास, शोषण और अराजकता से बच सकें, तब महिलाओं को शोषण में लपेटने का
एजेंडा नारीवाद कैसे हुआ?
भारत की मुस्लिम बेटियां समाज का सबसे अशिक्षित वर्ग
हैं, सम्मानित रोजगार में उनकी
तादाद सबसे कम है, अपने ही समाज में दहेज के कारण ठुकराई जा रही हैं, गरीबी-बेरोजगारी और
असंगठित क्षेत्र की शोषणकारी व्यवस्था की मजदूरी में पिस रही हैं| ऐसे में सवाल
पैदा होता है कि असल समस्याओं से जूझती मुस्लिम महिलाओं को इस नकली समस्या में
क्यों घसीटा जा रहा है? वो कौन लोग हैं जिन्हें शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, तीन-तलाक, भगोड़े पति, पति की दूसरी शादी से उत्पन्न अभाव, परिवार नियोजन का अभाव, जात-पात, दहेज, दंगों में सामूहिक
बलात्कार जैसी भयानक समस्याओं के निराकरण के बजाए हाजी अली दरगाह के गर्भ-गृह में
दाखिले को मुस्लिम महिलाओं का राष्ट्रीय मुद्दा बनाने की सूझी है? इस सब के बावजूद जो
महिलाएं आज हाजी अली दरगाह में जाने को अपनी जीत के तौर पर देख रही है उसे रूककर
एक बार जरुर सोचना चाहिए क्या पुरुषवादी सोच से ये ही उसकी असल लड़ाई थी! कहीं दरगाह की नकली जंग
में उसे उसके असल मुद्दे से भटकाया तो नहीं जा रहा है? (दिल्ली आर्य प्रतिनिधि सभा) चित्र साभार गूगल लेख राजीव चौधरी
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