जैसे ही कोई त्यौहार
निकट आता है तो हमारे चेहरों पर खुशियों के साथ ललाट पर कुछ रेखाएं चिंता की भी स्पष्ट
दिखाई दे जाती है कि कहीं आस्था की आड में फिर नदियाँ प्रदूषित तो नहीं होगी? चिंता के
साथ एक प्रष्न भी खडा होता कि आखिर गंगा हो या यमुना शिप्रा हो या अन्य
जीवनदायनी नदी जो आज प्रदुषण के कारण दम तोड रही है किसकी है? मेरी या तेरी? पंडित जी की या शेख साहब की? अगडे की या पिछडे की? जुलाहे की या मोची की? दलित की या अति महादलित की? समाजवादी या पूंजीवादी की? सांप्रदायिक है या धर्मनिरपेक्ष? हमारा ख्याल है इससे या उससे पूछने की बजाय यह सवाल सीधे इन नदियों से ही पूछा जाना चाहिए। कि
आखिर यह किसकी है? इसको स्वच्छ रखने की जिम्मेदारी हमारी है या सरकार की? हम इन पर निर्भर है या फिर ये हम पर? या फिर हम दोनों एक दुसरे पर निर्भर है?
कलियुग के बीते पांच
हजार वर्षो में गंगा हो या यमुना सूखने के कगार पर पहुंच चुकी है। नदियों में व्याप्त
प्रदुषण के कारण आज उनके पानी से आचमन और उससे स्नान पर भी सवाल उठने लगे हैं।
हम जिम्मेदारी से भागते भागते कहीं इनका अस्तित्व
तो खत्म नहीं कर रहे है? लेकिन मानवीय सभ्यता में प्रश्न यह भी है कि क्या इनका अस्तित्व खत्म होने पर
हमारा अस्तित्व बचेगा? नहीं ना? तो फिर यह नदियाँ गन्दी क्यों
यदि बात राजधानी
दिल्ली की ही करें तो दुकान पर लोग धुपबत्ती अगरबत्ती जलाते है| तस्वीरों पर फूल
माला चढाते है फिर वहाँ पर जमा राख और सुखी फूल माला को पोलोथीन बैग में डालकर
यमुना में फेंक आते है| जिसे प्रवाहित कहते है| लेकिन भूल जाते है कि जब नदियों का
प्रवाह ही समाप्त हो जायेगा तो क्या प्रवाहित करोंगे? आस्था की आड में हम अपनी
नदियों को प्रदूषित कर आते है| इसे आर्य समाज का अपनी पूजा विधि पर हमला मत समझना
बस हम चाहते है आपकी आस्था भी जीवित रहे और साथ में प्रकृति को भी हानि ना हो| इसके
लिए यदि आप नदी बदलना चाहते तो क्या अब हम थोडा तरीका नहीं बदल सकते? पहली बात यह है कि फूल पेड पर खिले है वो प्रकृति में अपनी महक बिखेर रहे है
यानि के वो पेड पर ही ईश्वर को अर्पित है| उसे तोडकर उसकी हत्या कर किसे अर्पण कर
रहे हो? फिर भी यदि आप माला अर्पण करना ही चाहते हो तो सुखी माला और
वो जमा राख अपने घर के गमलों में डाल दे ताकि वो खाद बनकर फिर प्रकृति के काम आ जाये|
इस प्रसंग यदि आस्था
की बात की जाये तो भारतीय संस्कृति में नदी को मां का दर्जा दिया गया है लेकिन
अफसोस तो इस बात का है कि हम जिसे मां कहकर सम्मान देते हैं उसे हमने इस कदर गंदा
कर दिया गया है कि उसके पानी को पीने की आचमन
करने की बात तो कोसो दूर गयी| उसमें डुबकी लगाना सेहत को चुनौती देने के बराबर है।
लेकिन इसी सदी का एक इतिहास यह भी है कि इन नदियों का पानी इतना साफ हुआ करता था
कि लोग उसे पीने के काम में भी लाते थे लेकिन अफसोस अब यह बात इतिहास के किताबों
में दर्ज हो चुकी है। कहीं ऐसा ना हो कि ये नदियाँ सिर्फ इतिहास बनकर रह जाएं।
सामने जो हालात दिख रहे हैं उससे ऐसा लग रहा है कि गंगा यमुना की गंदगी हमारे लिए
एक बड़ी मुसीबत बनकर हमारे आसपास मंडराने लगी है। और तब हमारे पास समाधान के नाम
पर कुछ भी नहीं होगा।
आज इन नदियों को साफ
करने के नाम पर सरकारें मोटे बजट पेश करती है जबकि सब जानते है कि वो पैसा हमारी
जेब से टेक्स के रूप में जाता है किन्तु यदि हम शपथ ले इन जीवनदायनी नदियों को साफ
रखने में अपनी जिम्मेदारी समझे एक आदर्श नागरिक का कर्तव्य निभाए खुद समझे लोगों
को अपने बच्चों को समझाए तो इन नदियों को साफ रखने के साथ हम सरकार का काफी पैसा
अन्य मौलिक सुविधाओं के लिए बचा सकते है|
जिसके लिए सबसे आगे नदियों के घाट पर बने पूजा स्थलों के पुजारियों के साथ छोटे
बडे असंख्य मंदिरों के महंत, महामंडलेश्वर,पंडितों को पहल करनी होगी| धर्म को रोजगार
की बजाय आचरण का विषय मानकर बताना होगा कि जल है तो कल है ये नदियाँ है तो इनका धर्म
और मनुष्य जीवित है| उन्हें लोगों को पूजा पाठ के नाम पर फेंकी जाने वाली सामान
रोकना होगा| लोगों को भी सोचना होगा कि ये नदियाँ गंदे नाले में तब्दील क्यों हो
गई? लगभग हर सभ्यता के विकसित होने में नदी का योगदान रहा है। लेकिन नदियों के
स्वरुप को हमने जिस प्रकार से तार-तार किया है, गंदलाया है वह माफी के लायक कतई नहीं है। सोचो अगली पीढी को हम जल को लेकर
क्या मुंह दिखायेंगे?....आर्य समाज
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