कई रोज पहले
वर्ष 2010 सिविल सेवा परीक्षा में देशभर में अव्वल रहने वाले पहले कश्मीरी
आईएएस अधिकारी शाह फैसल ने कश्मीर में कथित रूप से लगातार हो रही हत्याओं और
भारतीय मुसलमानों के हाशिये पर होने का आरोप लगाते हुए इस्तीफा दे दिया। इसके बाद
जम्मू कश्मीर की पूर्व मुख्यमंत्री महबूबा ने बयान देते हुए कहा कि आतंकी धरती के
बेटे हैं और इन्हें बचाने की कोशिश करनी चाहिए, वह हमारी
धरोहर हैं। इसके बाद भी यदि कोई यह जानना चाहता हो कि आतंक का कोई धर्म होता हैं?
तो जवाब होगा नहीं। आतंकवादी आतंकवादी होता है। आतंकवादी का कोई धर्म,
जाति नहीं होती और वह पूरी तरह मानवता का दुश्मन होता है। और ये
मीडिया के सामने दिया जाना वाला वह बयान है जिसे एक नेता राजनीति में प्रवेश करने
से पहले रट लेता है।
हालाँकि अपनी
राजनीति चमकाने के लिए इस तरह का यह कोई पहला बयान नहीं है। सत्ता की कुर्सी पाने
को लालायित जीभ अक्सर ऐसे बयान देती रही हैं। सितंबर 2008 को
दिल्ली के जामिया नगर इलाके में इंडियन मुजाहिदीन के आतंकवादियों के खिलाफ की गयी
मुठभेड़ जिसमें दो संदिग्ध आतंकवादी आतिफ अमीन और मोहम्मद साजिद मारे गए, इस
मुठभेड़ में दिल्ली पुलिस निरीक्षक मोहन चंद शर्मा भी शहीद हुए किन्तु देश में
व्यापक रूप से विरोध प्रदर्शन किया गया। सपा, बसपा
जैसे कई राजनीतिक दलों ने संसद में मुठभेड़ की न्यायिक जांच करने की मांग उठाई।
यहाँ तक भी सुनने को मिला था कि तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गाँधी
आतंकियों की मौत की खबर सुनकर रोने लगी थी।
मोहन चंद शर्मा
के बलिदान को भुला दिया गया और देश की राजनीति से स्वर फूटते रहे कि आतंक का कोई
मजहब नहीं। आतंकवादी सिर्फ आतंकवादी होता है, उसकी कोई
भाषा नहीं होती। किन्तु फिर बारी आई लोकतंत्र के मंदिर संसद भवन पर हमले के आरोपी
आतंकी अफजल गुरु को फांसी देने की तो अचानक फिर राजनीति ने करवट ली और कम्युनिष्ट
दलों को अफजल में वोट बेंक दिखाई दिया। वामपंथी लेखिका अरुंधती राय ने तो अफजल
गुरु को मासूम बताने में पूरी पुस्तक लिख दी, जिसमें
कहा कि अफजल को जेल में तरह-तरह की यातनाएं दी गयी। उन्हें पीटा गया, बिजली
के झटके दिए गये, ब्लैकमेल किया गया और अंत में अफजल गुरू को
अति-गोपनीय तरीके से फांसी पर लटका दिया गया। यही नहीं यह तक कहा गया कि उनका
नश्वर शरीर भारत सरकार की हिरासत में है और अपने वतन वापसी का इंतजार कर रहा है।
इस घटना के बाद
कुछ समय शांति रही फिर बारी आई जून 2004 को अहमदाबाद
में एक मुठभेड़ होती हैं जिसमें लश्कर ए तैयबा के आतंकी इशरत जहां और उसके तीन साथी
जावेद शेख, अमजद अली और जीशान जौहर मारे गए थे। जब इस
मुठभेड़ का जिन्न बाहर आया तो बिहार राज्य के मुख्यमंत्री ने तो उन्हें बिहार की
बेटी तक बता डाला. इशरत के नाम पर एक एंबुलेंस भी चलाई जाती है, जिस
पर शहीद इशरत जहां लिखा होता है। जबकि मुंबई विस्फोट मामले के आरोपी डेविड हेडली
ने पुष्टि कर दी थी कि इशरत जहां आतंकवादी थी। लश्कर ए तैयबा की वेबसाइट पर भी
उसकी मौत पर मातम मनाया गया था। किन्तु इसके बाद भी आतंक अपनी और राजनीति अपनी
चाले चलती रही।
घड़ी की सुई एक
बार फिर आगे बढती है अब बारी आती है आतंकी याकूब मेमन की फांसी की। वह याकूब जो 1993
का मुंबई हमले में शामिल था और जिसमें 250 से ज्यादा लोग
मारे गए थे। बड़ी संख्या में लोग घायल भी हुए थे। देश की आन्तरिक सुरक्षा चरमरा गयी
थी और देश की आर्थिक राजधानी मुम्बई खौफ के साये में सिमट गयी थी। किन्तु जब इस
हत्यारे की फांसी की बात आई तो आंतक के मजहब से अनजान नेता अभिनेता और कथित
सामाजिक कार्यकर्ता सामने आकर रोने लगते हैं। यहाँ तक कि 40 लोगों
द्वारा राष्ट्रपति को चिट्ठी लिखकर याकूब की फांसी रोकने की अपील तक की जाती हैं।
चिट्ठी में फिल्म निर्माता-निर्देशक महेश भट्ट, अभिनेता
नसीरुद्दीन शाह, स्वामी अग्निवेश, बीजेपी
सांसद शत्रुघ्न सिन्हा के अलावा जाने-माने वकील तथा सांसद राम जेठमलानी, वृंदा
करात, प्रकाश करात और सीपीएम महासचिव सीताराम येचुरी आदि दस्तखत कर रात भर
सर्वोच्च न्यायलय में सुनवाई कराते हैं।
समय फिर गति से
आगे बढ़ता है राजनेताओं के बयान आतंक और मजहब को लेकर वोट की रोटी सेंकते है। अचानक
सेना को बड़ी कामयाबी तब मिलती है जब वह हिजबुल मुजाहिदीन के आतंकवादी कमांडर
बुरहान वानी को मार गिराती है। घाटी में आक्रोश उठता है और उस आक्रोश को देश में
बैठे कथित बुद्धिजीवी और राजनेता हवा देने लगते हैं। इस बार भारतीय सेना के मनोबल
पर पहली चोट करती हुई सीपीएम कार्यकर्ता कविता कृष्णन बुरहान के एनकाउंटर को
शर्मनाक बताती हुई कहती है जो मरा है उस पर बाद में चर्चा होगी, लेकिन कोई बुरहान के एनकाउंटर की जांच
जरूर होनी चाहिए। यही नहीं दिल्ली में एक युवा छात्र नेता उमर खालिद ने अपने
फेसबुक अकाउंट पर बुरहान कि तुलना लैटिन अमेरिकी क्रांतिकारी चे ग्वेरा से करता है
तो देश का एक बड़ा पत्रकार राजदीप सर-देसाई बुरहान वानी की तुलना अमर शहीद भगत सिंह
से करने लगता हैं।
शायद इन सब
कारणों से ही सुरेश चाहवान यह सवाल पूछने को मजबूर हुए कि कोई मुठभेड़ शुरू होती है
तो आतंकी व सुरक्षा बल आमने-सामने होते हैं। उस समय कोई कुछ भी नहीं कर सकता है।
सत्ता पाने के लिए महबूबा ने तो आतंकियों को धरती पुत्र करार दिया है लेकिन यहाँ
सवाल यह खड़ा होता है कि हिंदुस्तान तथा हिंदुस्तान के सैनिकों को अपना दुश्मन
मानने वाले आतंकी अगर धरती के बेटे हैं तो देश के लिए बलिदान देने वाले सैनिक क्या
हैं?
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