आज दुनिया की
जनसँख्या सात अरब से ज्यादा है। विश्व भर के सामाजिक चिन्तक इस बढ़ती जनसँख्या पर
अपनी गहरी चिंता भी प्रकट कर रहे हैं। जनसंख्या विस्फोट के खतरों की चर्चा हो रही
है। तमाम देश, बढ़ती आबादी पर लगाम लगाने की बातें कर रहे हैं
और प्रकृति के सीमित संसाधनों का हवाला दिया जा रहा है।
यह तो तय है कि
पृथ्वी का आकार नहीं बढाया जा सकता और यहां मौजूद प्राकृतिक संसाधन भी अब बढ़ने
वाले नहीं, जैसे पानी, खेती के
लायक जमीन। इस कारण सामाजिक चिन्तक चेतावनी दे रहे हैं कि बढ़ती आबादी, इंसानों
के अस्तित्व के लिए सबसे बड़ा खतरा है। ऐसे में सवाल यह उठता है कि धरती, कितने
इंसानों का बोझ उठा सकती है?
जहाँ ये सवाल
पूरी गंभीरता से उठाया जा रहा है वहीं अमेरिकी लेखिका कैथरीन रामपाल ठीक इसके उलट
एक दूसरा सवाल लेकर पूरी दुनिया के सामने हाजिर है कि आबादी बढ़ रही है लेकिन किसकी?
वे अमेरिका समेत अनेकों देशों में कम हो रही आबादी पर चिंता व्यक्त
कर रही है। उसने जापान का उदाहरण देते हुए कहा है कि जापान में मौतें लगभग एक सदी
में अपने उच्चतम स्तर पर पहुंच गईं हैं। जन्म दर गिर रही है। इन आंकड़ों को एक साथ
रखें तो इसका मतलब है कि जापान की आबादी तेजी से कम हो रही है। आगे चीजें बदतर हो
सकती हैं। इस जनसांख्यिकीय संकट के कारण आगे चलकर अमेरिका और यूरोप को कुछ सबक मिल
सकते हैं।
इस लिहाज से
कैथरीन की यह चिंता दिलचस्प है और यदि इसका गहराई से विश्लेषण करें और साथ ही एक
छोटा सा उदाहरण रूस से भी अगर ले लिया जाये तो केथरीन की इस चिंता को आसानी से
समझा जा सकता है। सन् 2025 तक रूस की आबादी 14
करोड़, 37 लाख से घटकर 12 करोड़, 50 लाख और
सन् 2050 तक केवल 10 करोड़ रह जाएगी। विशेषज्ञों की माने तो
रूस में हर दिन दो गांव खत्म हो रहे हैं। पिछले आठ महीनों में ही रूस की आबादी 5
लाख, 40 हजार कम हो चुकी है और पूरे साल में यह कमी 7-8
लाख तक पहुंच जाएगी।
शायद आगे चलकर
भारत भी इस समस्या का सामना करने जा रहा हैं। क्योंकि अमेरिका से लेकर जापान और
यूरोप की तरह यहाँ भी समस्या समान है। एक तो शादी की दरें गिर रही हंै। आज अधिकांश
युवा और युवतियां शादी को एक फालतू का झमेला समझकर प्रेम या लिव इन रिलेशनशिप जैसे
रिश्तों को प्राथमिकता प्रदान कर रहें हैं। कुछ अनियमित नौकरियों में फंसे होने के
कारण शादी नहीं कर पा रहे है तो कुछ शादी से पहले अधिक आर्थिक सुरक्षा चाहते हैं।
इसके विपरीत यदि
सामाजिक और पारिवारिक दबाव में जो शादियाँ की जा रही है उनमें फेमिली प्लानिंग के
साथ एक बच्चे पर ही जोर दिया जा रहा हैं। इससे साफ अंदाजा लगाया जा सकता है कि
निकट भविष्य में भारत में भी बुजुर्गों की संख्या में बेतहाशा वृद्धि होने वाली है
यानि इसके बाद मृत्यु दर बढ़ेगी और जन्मदर गिरेगी।
अब सवाल यह है
कि यदि यह सब है तो फिर आबादी किसकी बढ़ रही है? इसे हम
धार्मिक आधार पर सही ढंग से समझ सकते है। इस समय पूरे विश्व में ईसाई धर्म को
मानने वाले करीब तैतीस फीसदी लोग है, इस्लाम को पच्चीस फीसदी, हिन्दू
सोलह फीसदी और बौद्ध मत को मानने वाले सात फीसदी के अलावा अन्य मतो को मानने न
मानने वाले करीब अठारह फीसदी लोग भी हैं।
किन्तु वह अभी
इस मोटे अनुमान से बाहर है यदि बढती और घटती आबादी को भारत के ही लिहाज से देखें
तो वर्ष 2011 में हुई जनगणना के अनुसार हिन्दू जनसंख्या
वृद्धि दर 16.76 प्रतिशत में रहा, किन्तु
इसके विपरीत भारत में मुस्लिमों का जनसंख्या वृद्धि दर 24.6 है जो
और कही नहीं है।
मुसलमान कम उम्र
में शादियाँ करते हुए जनसख्या वृद्धि के अपने धार्मिक आदेश का पालन कर रहे है तथा
एक साथ कई-कई पत्नियाँ उनसे उत्पन्न बच्चें विश्व में बढती जनसँख्या में अपनी
भागेदारी दर्शा रहे हैं। इस कारण प्यू रिसर्च सेंटर और जॉन टेंपलटन फाउंडेशन की
रिपोर्ट के अनुसार विश्व के 60 प्रतिशत मुसलमान वर्ष 2030
तक एशिया प्रशांत क्षेत्र में रहेंगे। 20 प्रतिशत
मुसलमान मध्य पूर्व में, 17.6 प्रतिशत अफ्रीका में, 2.7
प्रतिशत यूरोप में और 0.5 प्रतिशत अमेरिका में रहेंगे। अगर
मौजूदा चलन जारी रहा तो एशिया के अलावा अमेरिका और यूरोप में भी मुस्लिम आबादी में
काफी बढ़ोतरी होगी। दुनिया के हर 10 में से 6 मुसलमान
एशिया प्रशांत क्षेत्र में होंगे। भारत अभी मुसलमानों की आबादी के मामले में
दुनिया का तीसरा देश है। अध्ययन के मुताबिक, 20 साल बाद
भी भारत मुस्लिम आबादी के मामले में इसी स्थिति में होगा।
अमेरिकी अध्ययन
के मुताबिक यूरोप में अगले 20 सालों में मुसलमान आबादी 4.41
करोड़ हो जाएगी जो यूरोप की आबादी का 6 प्रतिशत होगा। यूरोप के कुछ हिस्सों
में मुस्लिम आबादी का प्रतिशत दोहरे अंकों में हो जाएगा। फ्रांस और बेल्जियम में 2030
तक 10.3 फीसदी मुस्लिम होंगे अमेरिका में भी मुसलमानों की जनसंख्या दोगुनी
से अधिक हो जाएगी। सन 2010 में अमेरिका में 26
लाख मुसलमान थे, जो सन 2030 में
बढ़कर 62 लाख हो जाएंगे।
इस सब आंकड़ों की
माने तो जब जनसंख्या का यह विशाल बिंदु पूरे विश्व में फैलेगा और जब यह परिस्थिति
पैदा होगी तब विज्ञान को चुनौती के साथ-साथ अन्य मतो पर भी सांस्कृतिक और धार्मिक
हमलों में तेजी आने की सम्भावना से इंकार नहीं किया जा सकता। इस कारण आज भले ही यह
मुद्दा राजनीति और धर्मनिरपेक्षता की आग में फेंक दिया जाये पर वास्तव में यह
भविष्य का राजनैतिक और धार्मिक रेखाचित्र खींचता दिखाई दे रहा हैं।
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