स्वामी दीक्षानन्द जी सरस्वती आर्य समाज की एक महान् विभूति थे। तेजस्विता,
मनस्विता, वर्चस्विता
के मणिकांचन संयोग थे। उनका स्वाध्याय अगाध था और आर्य समाज के सिद्धांतो के प्रति
जहां कहीं भी उनके सामने शंका प्रस्तुत की जाती, उनका समाधान वे जिस योग्यता से करत थे, वह स्वामी जी की अपनी विशेषता थी।
वे प्रायः कहा करते थे कि जब मनुष्य किसी सैधांतिक पक्ष के विषय में ऊहापोह
की स्थिति में अपने को पाये और कोई समाधान प्रस्तुत करने के लिए विद्वान पास न हो, तो ऐसे मं तर्क ऋषि का आह्नान करना
चाहिए। ऋषि दयानन्द को वह तर्क ऋषि की गौरवमय संज्ञा से प्रायः स्मरण करते थे।
उन्होंने न केवल वाणी की प्रबलता से, संकल्प की प्रबलता से और प्रतिपादन की
शैली की नवलता से प्रस्तवन किया वरन् वह यह भी नहीं भूलते थे कि जहां-कहीं भी
उत्कृष्ट लेखन-प्रतिभा का प्रस्फुटन हो, उसे वह अपने आशीर्वादात्मक स्नेह का
सिंचन पदान करते थे और लेखकों को प्रोत्साहित करते थे कि वे उत्कृष्ट साहित्य की
रचना कर जहां लेखक समाज में अपनी प्रतिष्ठा करें, वहां आर्य समाज के सिद्धांतो की जनमानस
में प्रष्ठि भी करें।
राम ने श्याम को खोज लिया और श्याम ने कृतज्ञतास्वरूप स्वयं को अपने गुरु
स्वामी समर्पणानन्द के प्रति समर्पित कर दिया। उनके मार्ग में अनेक कठिनाइयों आई।
किन्तु स्वामी जी महाराज एक निष्ठावान् निः सपृह, आर्ष प्रचारक का उदाहरण प्रस्तुत करते
हुए अपने मार्ग पर बढ़ते चले गयेए मानों ये संदेश दे रहे हों-
माझी से कहो कि लंगर उठा दे, मैं तूफान की जिद देखना चाहता हूं।
स्वामी दीक्षानन्द जी प्रखर वाग्मी, ऋषि तुल्य व्यक्तित्व के स्वामीए
अद्भुत व्याख्याकारए यज्ञ विज्ञान के मर्मज्ञ, अनेक पुस्तकों के सुयोग्य लेखकए
योगशिरोमणिए विद्यामार्तण्ड आदि उपाधियों से विभूषित थे। उनके निधन से आर्यजगत् की
अपूरणीय क्षति हुई है।
स्वामी दीक्षानन्द जी आर्य समाज में नवजीवन संचार हेतु निम्नलिखित क्रान्ति
सूत्रों को तत्काल लागू किये जाने की आवश्यकता पर बल देते थे-
1. आठ और साठ वर्ष के व्यक्ति को गृहत्याग
अनिवार्य है।
2. ब्रह्मचारी, वानप्रस्थ और संन्यासी के लिए
गृहत्यागए सम्पत्ति-त्याग, सार्वदेशिक
सभा एवं राजनैतिक संगठनों के पद एवं एम.एल.ए., एम. पी. पद तक का त्याग अनिवार्य हो।
3. समाज में सम्पत्ति का सहज विनिमय हो
सकने के लिए प्रत्येक गृहस्थ को प´चमहायज्ञों का करना अनिवार्य हो।
4. प्रत्येक आर्य गृहस्थ के लिए आर्यसमाज
एवं राजनैतिकण् संगठनों की सदस्यता-ग्रहण में स्वातन्त्रय होते हुए भ्ी एक समय में
एक ही संस्था का पदग्रहण अनिवार्य हो।
5. समाज की सर्वलघु इकाई गृहस्थ तथा
सर्वबृहद् इकाई सार्वदेशिक सभा के लिए पुरोहित पद की नियुक्ति अनिवार्य हो।
6. आर्यसमाज संस्था, जिसके घटक आर्य समाज हैं और सर्वांपरि
संस्था सार्वदेशिक सभा है, के
प्रत्येक पदाधिकारी के लिए संस्कृत-ज्ञान, श्रीमद्दयानन्द प्रस्थानत्रयी ;सत्यार्थ प्रकाश, संस्कार विधि, रिग ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका एवं आर्याभिविनय की परीक्षा में उत्तीर्ण होना अनिवार्य
है।
स्वामी दीक्षानन्द जी की प्रवचन-शैली में विलक्षण प्रभावोत्पादन की क्षमता
थी और वे जो कुछ भी कहते थेए वह सरल-स्वाभाविक रूप में श्रोता के अन्तस् को स्पर्श
करती थी और श्रोता उनके कथन की युक्तियुक्तता के प्रति नतमस्तक हो जाता था।
विषय का ज्ञान और विद्वत्ता तो बहुतों में हाती है, किन्तु स्वामी जी महाराज की यह अपनी
विशेषता थी कि उनके कथन का गन्तव्य श्रोता का मनःस्थल था, जहां वे मन्तव्य बनकर ही विश्राम लेता
है। डॉ. उषा शर्मा जी द्वारा लिखित ‘मॉरीशस में आर्य समाज की बहती अविरल
धारा’ पुस्तक
में वर्णन है कि-
‘‘इन्साइक्लापीडिया ऑफ यज्ञ’’ कहलाने वाले आचार्य कृष्ण जी सन् 1973 में आर्य महासम्मेलन के अवसर पर मॉरीशस
केवल चार मास के लिए गये थे। सम्मेलन के तीन मास पूर्व से ही मॉरीशस के कोन-कोने
में अपनी वरदा वेदमाता प्रदत्त वर्चस्विनी वाणी से सब के हृदयों में अपनी सरस
भावना भरने में सफल हुए, आज भी
वहां की जनता भाव विभोर होकर याद करती है। वाणी से पाणि तक की शिक्षा समान रूप से
परमात्मा हर किसी को नहीं देता, परन्तु
स्वामी जी को पूर्वजन्म के शुभ कर्मां तथा इस जन्म के सौजन्य से प्रात् हुई है।
सन् 1973 में जा
आर्य सम्मेलन हुआ। उसकी सफलता का मुकुट स्वामी जी की ही मूर्धा को सुशोभित करता
है। तीन मास पर्व जाकर यज्ञ, प्रवचन, कथा के अतिरिक्त पौरोहित्य शिक्षा-पद्धति
का प्रारम्भ भी स्वामी जी के सौजन्य से हुआ जो आज तक विविध रूपों में फलीभूत हो
रहा है। सबसे विशिष्ट बात यह है कि स्वामी जी की वाग्देवी सरस्वती इतनी मृदुता से
मुखरित होती है कि कोई भी उससे अछूता रहने का दुर्भाग्य प्रापत करना नहीं चाहता।
यही कारण था कि पौराणिक, आर्यसभा
तथा रविवेद सभा के भी लोग उनका प्रवचन मात्र सुनने नहीं अपितु प्रशिक्षण प्राप्त
करने आते हैं।
कई मानवों में एक विशेष गुण होता है कि वे किसी को भी अपना बनाने की क्षमता
रखते हैं। भारत की मर्यादा के अनुकूल राम और कृष्ण को प्रमुखता दी जाती है।
मॉरीशसवासी प्रारम्भ से ही रामायण गीता के आस्थावान् भक्त रहे हैं अतः वे राम और
कृष्ण को अधिक मानते हैं। स्वामी जी ने जब आय्र समाज के मंच से इन दोनों का जयघोष
करवाया कुछ विरोधी हुए कुछ प्रसन्न। विरोधियों ने सार्वदेशिक सभा से इसकी पुष्टि
करनी चाही कि आर्य समाज के मंच से इसकी घोषणा हो कि नहीं, सार्वदेशिक ने पुष्टि कर दी। इस प्रकार
स्वामी जी का प्रभाव इस दिशा में भी अधिक रहा। फिर क्याथा पौराणिक भी इनको अपने
मन्दिरों में बुलाने लगे। इस प्रकार सर्वत्र खूब प्रचार करने के बाद (गोलमेज
सम्मेलन) हुआ जिसके अध्यक्ष स्वामी जी थे उनमें भी जो वक्तव्य हुए उनका प्रभाव भी
जनता पर पड़ा। यह सम्मेलन अत्यन्त सफल हुआ। स्वामी जी ने वहां हिन्दू एकता का तथा
हिन्दी का भी प्रचार कियाए जिससे काफी जनता इनसे प्रभावित हुई और इसके बाद स्वामी
जी पुनः एक बार मॉरीशस गये और अपनी पवित्र विभूषिता वाणी द्वारा मॉरीशस की जनता को
सन्तुष्टयिका। इस प्रकार मॉरीशस की वह पुण्य सागर सलिला भूमि अनेक विद्वज्जनों से
अभिषिक्त है।
आइये, स्वामी जी
के दिव्य जीवन से प्रेरणा लें, उनके
उत्कृष्ट साहित्य का अध्ययन करें ओर जो कुछ लाभ उन ग्रन्थों से प्राप्त हो, वह अन्यों तक भी पहुंचायें। उनके महान्
व्यक्तित्व के प्रति यह सच्ची श्र(ांजलि होगी ओर उनके विराट् कृतित्व को भी हम इस
प्रकार से अक्षुण्ण रख सकेंगे
-आचार्य चन्द्र शेखर शास्त्री
No comments:
Post a Comment