हो सकता हैं लोगों में उफनती राष्ट्रीय गर्व की भावना का पारा कुछ देर के
लिए लुढ़क जाये, झूठे और
गर्वीले न्यूज से ओतप्रोत लोग मुझे नकारात्मक समझे। पर मुझे विश्वास है कुछ लोग
ऐसे भी जरूर होंगे जो इस सच को स्वीकार करेंगे। क्योंकि बीमारी का इलाज तभी सम्भव
होता है जब वह बीमारी मरीज द्वारा स्वीकार कर ली जाती है। इस बात को कौन अस्वीकार
कर सकता है कि नेताओं की वजह से आज देश जातिवाद के घोर दलदल में धंसता जा रहा है? सहरानपुर के शब्बीरपुर गाँव में दलित
और राजपूत हिंसा की आंच अभी ठीक से ठंडी भी नहीं हुई थी कि अचानक महाराष्ट्र के
पुणे से शुरू हुआ जातीय हिंसा का दौर मुम्बई और कई अन्य शहरों तक पहुंच गया है।
जगह-जगह पथराव और आगजनी का दौर जारी हुआ, मुम्बई के उपनगरों चेंबूर, कुर्ला, मुलुंड और ठाणे के अलावा हड़पसर और
फुरसुंगी में पथराव और आगजनी की कई घटनाएं हुईं। कई जगह दुकानों और ऑफिसों को आग
के हवाले कर दिया गया।
ऐसे में जानना जरूरी है कि ये सारा विवाद है क्या और क्यों? अचानक महाराष्ट्र प्रतिशोध की आग में
धधकने लगा है? महाराष्ट्र
के पुणे में यह सारा विवाद अंग्रेजों और पेशवाओं के बीच हुए युद्ध के 200 साल पूरे होने को लेकर हुआ है। जिसमें
एक जनवरी 1818 में
अंग्रेजों ने दलितों की सहायता से पेशवा द्वितीय को शिकस्त दे दी थी। पुणे के
कोरेगांव के जय स्तंभ पर हर साल यह उत्सव मनाया जाता है। दलित इसे शौर्य दिवस के
तौर पर मनाते हैं और मराठाओं की ओर से हर साल इसका छुटपुट विरोध होता रहा है।
लेकिन इस साल युद्ध के 200 साल पूरे
होने पर दलितों की ओर से इस बार भव्य आयोजन किया जा रहा था जिसमें 5 लाख से ज्यादा लोगों के जुटने की बात
की जा रही थी। खास बात ये है कि यह देश का इकलौता युद्ध है जिसमें अंगेजों की जीत
का जश्न मनाया जाता है।
जातिगत हिंसा की बात करें तो बीते पिछले कुछ महीनों में गुजरात में पटेल
आन्दोलन हुआ ये भी जाति के नाम पर था। हरियाणा में जाट आन्दोलन हुआ था, सरकारी और निजी संपत्तियों को आग के
हवाले किया गया। इसमें भी आगजनी और हिंसा का वही तांडव दोहराया गया जिसके बाद
हार्दिक पटेल नाम से एक नेता सामने आये। इसके बाद गुजरात में ऊना से कथित गौरक्षक
दलों द्वारा कुछ दलितों की पिटाई के बाद देश में जो हुआ सब जानते हैं। इस आन्दोलन
से जिग्नेश मेवाणी का जन्म हुआ तो उत्तरप्रदेश में दलित, राजपूत हिंसा महाराणा प्रताप की
शोभायात्रा के बाद भी एक दलित नेता चन्द्रशेखर रावण का जन्म भी इसी जातिवाद की कोख से ही हुआ था।
इस देश में अन्दर ही अन्दर बहुत कुछ हो रहा है। रोहित वेमुला की ‘आत्म-हत्या’ पहले कन्हैया और ‘राष्ट्रवाद’ फिर ऊना कांड, कुछ सुलग रहा है जो कभी-कभी फूटता है
तो कभी अंदर-अन्दर ही दहक रहा होता है। अभी सब कुछ शांत नहीं हुआ कि अगली आग की
तैयारी की जा रही है। हाल ही में पांच दिसंबर को कई दलित संगठन अशोक भारती के
नेतृत्व में आंध्र प्रदेश भवन में राष्ट्रीय दलित महासभा कर रहे थे। इस सम्मेलन का
मुख्य उद्देश्य शब्बीरपुर गांव के दलितों को न्याय दिलाने के साथ-साथ भीमआर्मी के
संस्थापक चंद्र शेखर रावण, शिव कुमार
प्रधान, सोनू समेत
अन्य की जेल से रिहाई की आवाज को बुलंद करना है।
कोरेगांव युद्ध की सालगिरह पर वैसे तो हर साल पंद्रह-बीस हजार लोगों की भीड़
वहां जमा होती थी, लेकिन इस
बार तीन-साढ़े तीन लाख लोग कैसे जमा हो गए? क्या ये कोई सोची समझी साजिश थी या
महाराष्ट्र को जातीय हिंसा की आग में झोंकने की पूर्व योजना थी? सामाजिक न्याय के बहाने किस तरह एक बाद
एक नेता जन्म ले रहे हैं, इसे भी
समझना होगा। सामाजिक न्याय के विचार का पानी कथित जातिवादी नेता झोली में लिए चल
रहे हैं जो कभी बिखरता है तो कभी हिंसा के लाल रंग में मिल जा रहा है। हमने
शब्बीरपुर की घटना के बाद भी पूछा था कि भारत के चुनावी बाजार में राजनीतिक
निर्माताओं द्वारा तैयार किए गए और एक दूसरे से आगे बढ़कर दिए जा रहे बयान क्या कभी
सामाजिक समरसता का सपना पूरा होने देंगे? हमें नहीं लगता क्योंकि ऐसी घटनाओं के
बाद यह लोग एक-दूसरे के विरु( बड़े मोटे-मोटे शीर्षक देकर लोगों की भावनाएं भड़काते
हैं और परस्पर सिर फुटौवल करवाते हैं। एक-दो जगह ही नहीं, कितनी ही जगहों पर इसलिए दंगे हुए हैं कि
स्थानीय अखबारों ने बड़े उत्तेजनापूर्ण लेख लिखे हैं। इस समय ऐसे लेखक बहुत कम हैं, जिनका दिल व दिमाग ऐसे दिनों में भी
शांत हो। दूसरा सोशल मीडिया पर भ्रामक प्रचार भी ऐसे माहौल में आग में घी का काम
करता दिखाई देता है।
इस जश्न के भी मूल उद्देश्य उसकी गर्वीली परत हटाकर देखें तो कुछ यूँ
देखिये कि आज से 200 साल पहले
अंग्रेजों ने दलितों की सहायता से पंडित पेशवाओं को हराया था। शनिवार वाडा में जो
अंग्रेजी पताका फहराई गयी थी उसमें दलित समुदाय के लोगों का साथ था। हालाँकि अब न
वह युद्ध जीतने वाले अंग्रेज रहे, न म्हारसेना
के वह सिपाही और न ही पेशवा और उनके उच्च पद। लेकिन लोग हैं कि इतिहास से गौरव और
अपमान के कुछ पल बटोरकर, आज के
आजाद और संवैधानिक भारत में हिंसा का तांडव मचा रहे हैं। इसमें कोई एक समुदाय दोषी
नहीं बल्कि हर एक वह समुदाय दोषी है जो इतिहास से आज भी जातीय गर्व की भावना
ढूंढकर दूसरों को चिढ़ाते हैं, नीचा
दिखाते हैं, इसमें
शनिवार वाडा में शौर्य दिवस मनाने वाले भी उतना ही दोषी हैं जितना परशुराम जी वे
भक्त जो गर्व से उन्हें भगवान का दर्जा देकर सीना ठोकते हुए कहते हैं कि परशुराम
जी ने 21 बार
पृथ्वी क्षत्रीय विहीन कर दी थी। यदि हिन्दू समाज में आपसी युद्ध को वे
गर्व मानते हैं तो आज वे दलितों के जश्न से अपमानित क्यों होते हैं? मेरा उद्देश्य किसी की कमजोर भावनाओं
पर वार करना नहीं है पर क्यों न सामाजिक समरसता राष्ट्रीय एकता, अखंडता बनाये रखने के लिए इन एतिहासिक
सच्चे झूठे प्रमाणित अप्रमाणित गर्वों को अब पीछे छोड़ दिया जाये? एक नया हिन्दुस्तान बनाया जाये वरना
ऐतिहासिक गर्व की भावना के चक्कर और वोट की राजनीति में भारत देश ही एक अलग इतिहास
बनकर रह जायेगा।.. लेख -राजीव चौधरी
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