क्या आदमी कभी
बंदर रहा होगा, इस सिद्धांत पर कितना यकीन होता हैं? दरअसल
बरसों पहले डार्विन का यह सिद्धांत पढ़ा था कि सभी जीव एक आम पूर्वज से आते हैं। यह
सिद्धांत परिवर्तन के साथ जीवन की प्रकृतिगत उत्पत्ति पर जोर देते हुए कहता है कि
सरल प्राणियों से जटिल जीव विकसित होते हैं। मतलब आदमी पहले बंदर था या इसे यूं
कहें कि बंदर धीरे धीरे आदमी बन गया। डार्विन का सिद्धांत विकास की अवधारणा का
सिद्धांत है। अब सवाल ये भी हैं यदि प्राकृतिक परिवर्तन होते-होते बन्दर से इन्सान
बन गया तो आगे इन्सान क्या बनेगा! क्या वह पक्षियों की तरह उड़ने लगेगा?
हाल ही में
चार्ल्स डार्विन के सिद्धांत को गलत ठहराते हुए केंद्रीय मानव संसाधन विकास राज्य
मंत्री सत्यपाल सिंह ने कहा है कि इस मुद्दे पर अंततरराष्ट्रीय बहस की जरूरत है, “क्रमिक विकास का
चार्ल्स डार्विन का सिद्धांत वैज्ञानिक रूप से सही नहीं है, इन्सान के पूर्वज
इन्सान और बंदरों के पूर्वज बन्दर थे इसमें कोई समानता नहीं हैं। केंद्रीय मंत्री
का कहना है कि “सर्जक
या सृष्टिकर्ता”
तो ब्रह्मा थे, उन्होंने मानव को धरती पर अवतरित किया हैं।
इसके बाद वैज्ञानिकों और वैज्ञानिक जगत से जुड़े लोगों ने एक ऑनलाइन पत्र में
सत्यपाल सिंह से अपना बयान वापस लेने को कहा है। साथ ही वरिष्ठ वैज्ञानिकों ने
मंत्री की इस टिप्पणी की निन्दा की और कहा “हम
वैज्ञानिक, वैज्ञानिक जानकारी प्रदान करने वाले तथा
वैज्ञानिक समुदाय से जुड़े लोग आपके दावे से काफी आहत हैं।
इस प्रकरण पर हर
किसी की अपनी राय हैं लेकिन जिस तरीके से इस बयान के बाद वैज्ञानिक समुदाय की
भावना आहत होने की बात सामने आई उससे यह साफ होता कि जो विज्ञान अभी तक तर्कों,
खण्डनो, नये विचारों, आयामों और खोजों पर आधारित था
क्या वह अब भावनाओं पर आन टिका हैं? क्या कुछ मजहबो की तरह अब उस विज्ञान की आस्था और
भावना पर चोट होने लगेगी? जबकि विज्ञान में तो एक दुसरे के वाद,
उत्पन्न खोज का खंडन और नये सिद्दांतो का प्रतिपादन वैज्ञानिकों द्वारा हुआ हैं?
बहुत पहले वैज्ञानिकों की अवधारणा थी
की पसीने से भीगी कमीज में गेहूं की बाली लपेटकर अँधेरे कमरे में रख देने से 21
दिन बाद स्वत: ही चूहें पैदा हो जाते है। इसके बाद इस स्वत: जननवाद का खंडन करते
हुए वैज्ञानिकों की अगली पीढ़ी ने तर्क दिया कि नहीं ऐसा संभव नहीं बल्कि जीव से ही
जीव पैदा होता हैं।
वर्ष 2008 में
विकासवाद के समर्थक जीव-विज्ञानी स्टूअर्ट न्यूमेन ने एक साक्षात्कार में कहा था कि
नए-नए प्रकार के जीव-जंतु अचानक कैसे उत्पन्न हो गए, इसे
समझाने के लिए अब विकासवाद के नए सिद्धांत की जरूरत है। जीवन के क्रम-विकास को
समझाने के लिए हमें कई सिद्धांतों की जरूरत होगी, जिनमें
से एक होगा “डार्विन
का सिद्धांत”
लेकिन इसकी अहमियत कुछ खास नहीं होगी। उदाहरण के लिए, चमगादड़ों
में ध्वनि तरंग और गूँज के सहारे अपना रास्ता ढूँढ़ने की क्षमता होती है। उनकी यह
खासियत किसी भी प्राचीन जीव-जंतु में साफ नजर नहीं आती, ऐसे में
हम जीवन के क्रम-विकास में किस जानवर को उनका पूर्वज कहेंगे?
पश्चिम दुनिया में तर्कशास्त्र का पिता कहे जाने
वाले अरस्तू को तो लोग बड़ा विचारक कहते हैं लेकिन यूनान में अरस्तू के समय हजारों
साल से यह धारणा पुष्ट थी कि स्त्रियों के दांत पुरुषों की अपेक्षा कम होते है।.
अरस्तु की एक नहीं बल्कि दो पत्नियाँ थी वो गिन सकते थे, लेकिन
उन्होंने भी इस धारणा को पुष्ट किया। अरस्तु के कई सौ वर्षों बाद किसी ने अपनी
पत्नी के दांत गिने और इस धारणा का खंडन किया और बताया कि स्त्री और पुरुष दोनों
में दांत बराबर संख्या में होते है। क्या इस सत्य से अरस्तु के मानने वालो की
आस्था आहत होगी?
एक छोटी सी सत्य
घटना है, गैलीलियो तक सारा यूरोप यही मानता रहा कि सूरज पृथ्वी का चक्कर लगाता है।
जब गैलीलियो ने प्रथम बार कहा कि न तो सूर्य का कोई उदय होता है, न
कोई अस्त होता है. बल्कि पृथ्वी ही सूर्य के चक्कर लगाती हैं। तब गैलीलियो को पोप
की अदालत में पेश किया गया। सत्तर वर्ष का बूढ़ा आदमी, उसको
घुटनों के बल खड़ा करके कहा गया, तुम क्षमा मांगो! क्योंकि बाइबिल में लिखा है कि
सूर्य पृथ्वी का चक्कर लगाता है, पृथ्वी सूर्य का चक्कर नहीं लगाती। और
तुमने अपनी किताब में लिखा है कि पृथ्वी सूर्य का चक्कर लगाती है। तो तुम बाइबिल
से ज्यादा ज्ञानी हो? बाइबिल, जो कि
ईश्वरीय ग्रंथ है! जो कि ऊपर से अवतरित हुआ है!
गैलीलियो मुस्कुराया
और उसने कहा, आप कहते हैं तो मैं क्षमा मांग लेता हूं। मुझे
क्षमा मांगने में कोई अड़चन नहीं है. आप अगर कहें तो मैं अपनी किताब में सुधार भी
कर दूं। मैं यह भी लिख सकता हूं कि सूरज ही पृथ्वी के चक्कर लगाता है, पृथ्वी
नहीं। लेकिन आपसे माफी मांग लूं, किताब में बदलाहट कर दूं, मगर
सचाई यही है कि चक्कर तो पृथ्वी ही सूरज के लगाती है। सचाई नहीं बदलेगी। मेरे माफी
मांग लेने से सूरज फिक्र नहीं करेगा, न पृथ्वी फिक्र करेगी। मेरी किताब में
बदलाहट कर देने से सिर्फ मेरी किताब गलत हो जाएगी।
हो सकता हैं
सत्यपाल सिंह की निंदा हो, इसे धर्म और राजनीति की तराजू में रखकर सवाल हो, विपक्ष
का एक खेमा डार्विनवाद और उनके उपासक वैज्ञानिको का पक्ष ले। लेकिन मेरा मानना है
यह विज्ञान के रूढ़ीवाद पर सवाल है। पर क्या इस विषय पर दुबारा शोध नहीं होना चाहिए
कि एक व्यक्ति के पास 46 गुणसूत्र होते हैं, और एक
बंदर में 48 क्रोमोसोम होते हैं। इसे किस तरह स्वीकार किया जाये कि मनुष्य और बंदर
का एक सामान्य पूर्वज था और उसने बंदर से इन्सान बनने के रास्ते पर गुणसूत्रों को खो
दिया? आखिर क्यों हजारों सालों में एक भी बंदर इंसान नहीं बन पाया हैं। आखिर इसे
किस तरह पचा सकते है कि अफ्रीकन बन्दर काले और यूरोपीय बन्दर गोरे रहे होंगे जैसा
कि आज इन भूभागों पर मनुष्य जाति का रंग है? जब पूर्वज साझा थे तो मनुष्यों में
कद, रंग और भाषा का परिवर्तन क्यों हुआ? दूसरा यदि वैज्ञानिकों और डार्विन के इस
सिद्दांत को सही माने तो क्या इस तरह कह सकता हूँ कि आज कुछ बंदर जल, थल, आकाश और
मरुस्थल में शोध कर रहे है, ट्रेन, बस, मोबाइल का इस्तेमाल कर रहे है जबकि उसके
पूर्वज अभी भी वनों में उछल कूद रहे है? लेख-राजीव चौधरी
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