मैं जानता हूं मैंने जिन बातों को कबूल
किया है, उनके दो ही नतीजे
हो सकते हैं - कालापानी या फांसी। इन दोनों में मैं फांसी को
ही
तरजीह दूंगा क्योंकि उसके बाद फिर नया शरीर पाकर मैं अपने देश की सेवा कर सकूंगा।’’ ये शब्द उस महान क्रांतिकारी के हैं
जिसने मात्र 19 वर्ष की आयु में
फांसी के फंदे को सहर्ष हंसते-हंसते गले लगाया। जी हां, क्रांतिकारी
आदर्शवाद को एक नई दिशा देने वाला वह अग्रदूत है -करतार सिंह
सराभा।
अंग्रेजी हुकूमत ने 16 नवम्बर 1915 को इस वीर
बालक को लाहौर सैंट्रल जेल में
फांसी के तख्ते पर लटका दिया। आखिर दोष क्या था -अपने मुल्क के प्रति वफादारी और गद्दार अंग्रेजों को देश से बाहर खदेड़ने की
इच्छाशक्ति।
इस महान क्रांतिकारी का जन्म 24 मई 1896
को
लुधियाना के सराभा गांव में हुआ था। इनके
पिता का नाम सरदार मंगल सिंह था जिनका निधन जल्दी हो जाने के
कारण
करतार सिंह का पालन-पोषण उनके दादा जी सरदार बदन सिंह के संरक्षण में हुआ। प्रारंभिक शिक्षा अपने गांव में पूरी करने के बाद
लुधियाना के मालवा खालसा हाई स्कूल से आठवीं की
परीक्षा पास की। उसके बाद अपने चाचा के साथ उड़ीसा
चले गए जहां उन्होंने दसवीं तक की पढ़ाई की। इसके बाद करतार सिंह को उच्च शिक्षा के लिए कैलीफोर्निया यूनिवर्सिटी (अमरीका) भेज
दिया गया। यहां उनका सम्पर्क नालंदा क्लब के
भारतीय विद्यार्थियों के साथ हुआ।
1913 में सोहन सिंह भकना और लाला हरदयाल ने
गदर पार्टी की स्थापना की। फिर क्या था,
17 वर्ष
की छोटी उम्र में करतार सिंह ने अपनी पढ़ाई छोड़कर गदर
पार्टी की सक्रिय सदस्यता ग्रहण कर ली। वह गदर पत्रिका के सम्पादक भी बन गए और बहुत ही अच्छे तरीके से अपने क्रांतिकारी लेखों और
कविताओं के माध्यम से देश के नौजवानों को क्रांति
के साथ जोड़ा। यह पत्रिका हिन्दी, पंजाबी, गुजराती,
मराठी,
बंगाली
आदि भारतीय भाषाओं में छपती थी तथा विदेशों में
रह रहे भारतीयों तक पहुंचाई जाती थी।
1914 में प्रथम विश्वयुद्ध शुरू होने के बाद
करतार सिंह कोलम्बो के रास्ते
नवम्बर 1914 में कलकत्ता पहुंच गए। इनके साथ गदर पार्टी के क्रांतिकारी नेता सत्येन सेन और विष्णु गणेश पिंगले भी थे।
बनारस में इनकी मुलाकात रास बिहारी बोस से हुई
जिन्होंने करतार सिंह को पंजाब जाकर संगठित क्रांति
शुरू करने को कहा।
रास बिहारी बोस 25 जनवरी
1915 को
अमृतसर आए और करतार सिंह व अन्य क्रांतिकारियों
से सलाह कर अंग्रेजों के खिलाफ सशस्त्र क्रांति शुरू करने का
फैसला किया गया। इसके लिए ब्रिटिश सेना में काम कर रहे भारतीय सैनिकों की मदद से सैन्य-छावनियों पर कब्जा करने का निर्णय लिया गया।
इसके लिए 21 फरवरी 1915 का दिन सारे भारत में क्रांति के लिए
मुकर्रर किया गया।
करतार सिंह ने स्वयं लाहौर छावनी के
शस्त्र भंडार पर हमला करने का जिम्मा लिया।
सारी तैयारियां पूरी हो गईं लेकिन कृपाल सिंह नामक एक गद्दार
साथी
पुलिस का मुखबिर बन गया और क्रांति की योजना को पुलिस के सामने रख दिया। फिर क्या था-गदर पार्टी के नेता जो जहां थे, गिरफ्तार
कर लिए गए। भारतीय सैनिकों को छावनियों में
शस्त्र-विहीन कर दिया गया। इसे अंग्रेजों ने
लाहौर षड्यंत्र का नाम दिया।
अपने बचाव में बहस के दौरान करतार सिंह
ने अदालत में अंग्रेजी साम्राज्य की काली
करतूतों को उजागर किया और क्रांति की ज्वाला को सुलगा दिया। आखिरकार
13 सितम्बर
1915 को
फांसी की सजा अदालत की तरफ से सुना दी गई और इस वीर
बालक ने 19 वर्ष की छोटी उम्र में अपनी मां की गोद सूनी कर फांसी के फंदे को सहर्ष चूम लिया। लेकिन
क्रांति की इस ज्वाला ने सरदार भगत सिंह जैसे
महान क्रांतिकारी आजादी की लड़ाई के लिए खड़े कर दिए।
हमें आजादी मिल भी गई लेकिन हमने ऐसी
महान शहादतों का कर्ज चुकाना नहीं सीखा। उस समय
अंग्रेज भारत को लूटते थे और अब देसी अंग्रेज देशवासियों को लूट
रहे हैं। करतार सिंह सराभा जैसे क्रांतिकारी क्रांति की एक नई परिभाषा दे गए। उनके बलिदान के 102 वर्ष पूरे
होने पर श्रद्धांजलि के रूप में उन्हें
फूल-मालाओं की जरूरत नहीं है बल्कि हम सब का कर्तव्य है कि इन शहीदों के सपने पूरे कर देश और देशवासियों को खुशहाल बनाएं।
सेवा
देश दी जिन्दड़ीए बड़ी औखी,गल्लां करनियां ढेर सुखल्लियां ने।
जिनां देश दी सेवा ‘च पैर पाया,
ओहना लख मुसीबतां झल्लीयां ने।
शहीदी दिवस पर विशेष नवोदय टाइम्स
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