विषय हैरान कर देने वाला है. तो जाहिर सी बात है प्रतिक्रिया भी हैरान कर देने वाली आपकों सुनने को मिलेंगी.
पर क्या दलीलों के डर से सवाल उठाना बंद कर देना चाहिए? 23 नवम्बर का अखबार सभ्य समाज के
लोगों ने जरुर अपने बच्चों से छिपाया होगा क्योंकि उसकी प्रमुख खबर ऐसी थी कि
दिल्ली साढ़े चार साल के बच्चे पर साथ पढ़ने वाली बच्ची के बलात्कार का आरोप,
पुलिस ने दर्ज किया केस. मेरे ख्याल से जितना दुःख हमें किसी बम
विस्फोट या ट्रेन की किसी दुर्घटना पर होता हैं उतना ही दुःख इस खबर को पढ़कर भी
हुआ होगा कि हमारे देश का मासूम सा बचपन किधर जा रहा है.
महाभारत में एक प्रसंग है जब महात्मा विदुर भीष्म से उनके कक्ष में
कहते है कि तातश्री जब हस्तिनापुर के पाप की नदी बहेगी तो मैं और आप जरुर उस नदी
के किनारे पर खड़ें होंगे. क्योंकि हस्तिनापुर में होने वाली अप्रिय घटनाओं पर कम
से कम हम चर्चा तो कर लेते है वरना अन्य लोग तो चर्चा भी करना जरूरी नहीं समझते.
ठीक इसी तरह यदि आज इन घटनाओं पर हम चर्चा नहीं करेंगे तो क्या भविष्य हमसे भी
सवाल नहीं करेगा कि उस वक्त इस पर चर्चा करने की जिम्मेदारी किसकी थी? समाज बदल रहा है. हमारे रहन-सहन
का ढंग बदल रहा है. खर्च चलाने के लिए माता-पिता का काम करना जरूरी है ही. फिर
क्या किया जाए? बस परिवर्तन कहकर नकार दिया जाये या
जिम्मेदारी से सरकार और नागरिकों को समय रहते इस पर बहस करनी नहीं चाहिए क्योंकि
हमारी धरोहर आने वाली पीढ़ी है यदि यह नस्ल ही खराब हो गयी तो हम किस मुंह से अपनी
संस्कृति, अपने देश अपने आध्यात्म पर गर्वीले गीत गा सकेंगे?
हमारे बच्चे समय से पहले जवान हो रहे हैं. आखिर क्यों? जो भी तस्वीर हमारे सामने उभर
रही है वह समाज को सवालों के कटघरे में खड़ा कर रही है. हाल ही में पश्चिमी दिल्ली
के एक नामी स्कूल में साढ़े चार साल के एक लड़के द्वारा अपनी क्लास में पढ़ने वाली
छात्रा के साथ क्लास और वॉशरूम में बलात्कार करने का मामला सामने आया है. तो कुछ
दिन पहले ही 15 साल की एक लड़की दिल्ली हाई कोर्ट में चीख-चीखकर कह रही थी कि उसे
अपने पति के साथ रहना है. सितम्बर माह की हिमाचल प्रदेश की उस घटना को कौन भूला
होगा जिसने हमारी संस्कृति से लेकर हमारे मन के भी चिथडें-चिथडें कर दिए थे. जब
चंडीगढ़ के सरकारी अस्पताल में 10 वर्ष की एक बच्ची ने बच्चें को जन्म दिया था. मई
2017 में 12 साल की एक गर्भवती बच्ची को कोलकाता के एक स्कूल से बेदखल करने का
आदेश दिया गया था. इससे पहले भी अप्रैल 2017 में केरल से एक शर्मशार करने वाला
मामला सामने आया था जहाँ पर एक 15 साल की लड़की अपनी ही 14 साल के चचेरे भाई के बच्चे की माँ बनी थी.
उपरोक्त घटनाओं के कारण कुछ भी रहे हो लेकिन इस बात से कौन इंकार कर
सकता है कि बच्चा हमेशा वो चीज ग्रहण करता है जो समाज और घर में बंट रही होती है.
आज समाज में बंट क्या रहा है हर कोई जानता है लेकिन विरोध कौन करेगा? जब 2015 में भारत सरकार द्वारा
कुछ पोर्न साइट पर बैन लगाए जाने का आदेश दिया गया तो इसी देश में इसके खिलाफ अनेक
लोग विरोध पर खड़े हो गए थे. उस समय मीडिया
में बैठे कुछ तथाकथित बुद्धिजीविओं ने इसे स्वतन्त्रता से मौलिक अधिकारों का हनन
भी बताया था. जबकि सब जानते है कि इंटरनेट पर ओपन सेक्स मार्केट को मानसिकता में
विकृति एक बड़ा कारण बनती जा रही हैं. समाज सिर्फ विज्ञान के सहारे नहीं चलता इनमे भावनाओं का एक अहम् खेल होता है.
उम्र, सपने, समझ और ऐसे कई सारे शब्द
मिलकर एक ऐसा जाल बुनते हैं कि जिसमें आज हमारा मासूम बचपन फंसता चला जा रहा है.
यदि गंभीरता का आवरण चढ़ा कर देखे तो हमारे शहरों में हाल के वर्षों
में यौन संबंधो को लेकर किशोरों के मन में कैसे बदलाव हो रहे हैं, इसकी तश्वीर एक ई-हेल्थकेयर
कंपनी मेडीएंजल्स डॉट कॉम के सर्वे से देखने को मिलती है. यह सर्वे पिछले दिनों
देश के 20 बड़े शहरों में 13 से 19 साल के 15,000 लड़के-लड़कियों के बीच किया गया.
सर्वे के अनुसार देश में लड़कों के लिए पहली बार यौन सम्पर्क बनाने की औसत उम्र
13 साल है. जबकि लड़कियां 14 साल की उम्र में इसका अनुभव हासिल कर लेती हैं.
मामला यहीं नहीं रूकता. कम उम्र में यौन सम्बन्धों के प्रति आकर्षण और इससे जुड़े
प्रयोग करने की चाहत में कई किशोर यौन संक्रामक रोगों से भी ग्रसित हो रहे हैं.
कहने को हम भारतीय बड़ी तेजी से तरक्की कर रहे है लेकिन बच्चों की उम्र
और इस तरह के बढ़ते मामलों को करीब से देखें तो हम लगभग 12 वर्ष का चारित्रिक पतन
कर बैठे. आज अधिकांश बच्चों की पहुँच में इंटरनेट हैं, मोबाइल है सस्ते डाटा प्लान
है. एक किस्म से कहाँ जाये तो उसकी मासूमियत को उसके चरित्र को उड़ाने का अद्रश्य
बारूद उसके अन्दर हैं जो उसकी मनोवृति को जकड़ रहा है. शहरों में अधिकांश माता-पिता
दोनों कामकाजी हैं. अकेलेपन के बीच जब आपका बच्चा दोस्तों और अनजान लोगों के बीच
ज्यादातर वक्त गुजारने लगे तो इसके लिए क्या हम जिम्मेदार नहीं हैं? हर कोई बच्चों के लिए सब कुछ
करते हैं, अच्छे से अच्छी शिक्षा का प्रबंध, घर में अच्छी व्यवस्था, उनकी इच्छाओं का ख्याल लेकिन
अगर आप उनके साथ समय नहीं बिता पाते तो ये सारी कोशिशों पर पानी फेरने के लिए काफी
है. क्योंकि आज उनके मनों में इतने सारे
शारीरिक, सामाजिक तथा मनोवैज्ञानिक बदलाव हो रहे होते
हैं की आपके बच्चे के मन में सैकड़ों बातें चल रही होती हैं. अगर इन बातों को सुना
न जाए, समझा न जाए तो धीरे-धीरे ये विकार के रूप में मन के
किसी कोने में घर कर लेती हैं और जब तक हम ऐसी घटना अफ़सोस जाहिर कर रहे होते है
एक-एक और घटना चोरी छिपे हमारे पीछे खड़ी होती जा रही है ...लेख-राजीव चौधरी चित्र साभार गूगल
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