निरन्तर बढ़ते जा रही कावड़ यात्रा और उसके परिणाम या उसके महत्व पर समाज को
कभी चिन्तन भी करना चाहिए। बिना सोचे समझे किसी भी कार्य को करना उसके परिणाम की
चिन्ता न करना उससे होने वाली हिंसा की चिन्ता न करना ऐसे कार्यों को योगीराज
भगवान श्रीकृष्ण ने तामसी कर्म कहा है। गीता में उल्लेख करते हुए दर्शाया गया है-
अनुबन्ध ज्ञयं हिंसा मनवेक्ष्य च पौरुषम। मोहादारभ्यते कर्मः यत् तत् तामसू
मुच्यते।।
ईश्वर न मनुष्य को एक विशेष शक्ति प्रदान की है और वह है विशिष्ट ज्ञान।
सामान्य ज्ञान खाना, पीना, सोना, सन्तानोत्पत्ति आदि तो प्रत्येक पशु
पक्षी व प्राणी मात्र के पास जन्म से उन्हें प्राप्त है परन्तु जीवन का विकास, दोनें लोकें की प्राप्ति संयमित व
ज्ञान युक्त जीवन जीना तो केवत्रल मानव को ही प्राप्त है। इसीलिए इसे संसार की
समस्त योनियों में सर्वोत्तम यो का स्थान मिला है।
चक्षुओं में प्रायः उचित अनुचित का तथा अपनी जाति के समूह से अलग सोचकर
कुछकरने की क्षमता नहीं होती। कुछ भेड़ें आगे किसी मार्ग पर चल दें तो उसके पीछे
हजारों की संख्या में अन्य भेड़ें चल देती हैं। किसी भेड़ को यह जानकारी नहीं होती
है कि वे कहां जा रही हैं, क्यों जा
रही हैं, कितनी देर
तक और कितनी दूर तक चलना है? ऐसी कोई
जानकारी उसे नहीं रहती। वह तो वह तो सामने चलने वाली भीड़ को देखकर ही कदम बढ़ाने
लगती हैं। इसे भेड़चाल कहते हैं। आज क्या हो रहा है थोड़ा इस पर भी सोचें धर्म के
नाम पर जिसने जो चला दिया उसको करोड़ों करोड़ों व्यक्ति उस पर चल देते हैं। जो कर
रहे हें। उसका क्या परिणाम होगा उससे कोई लाभ होगा या नहीं उससे कहीं कोई हानि तो
नहीं होगी आदि किसी बात पर वे ध्यान नहीं देते। बस बहुत से लोग कर रहे हैं इसलिए
वे भी कर रहे हैं। परन्तु क्षमा करना ऐसी मानसिकता मनुष्यता की पहचान नहीं, यह तो भेड़चाल है। मनुष्य तो वह है जो
प्रत्येक कार्य को करने के पहले उस पर विचार करके सोच समझकर करे।
इसलिए कहा
गया-
ये मत्वा कर्माणि सीव्यन्ति ते मनुष्याः।
मनुष्य वही जो मनन चिन्तन करके कोई काय्र करता है।
इसलिए बिना सोचे समझे परिणाम रहित मात्र दिखावे से हो रहा धर्म प्रचार और
उसका अनुसरण धर्म के शुभ, सुखद
परिणाम से सबको वंचित कर रहा है।
धर्म का परिणाम सुख, शान्ति
धैर्यता, सत्यता, सौहाद्रता, संगठन, प्रेम, अहिंसा, सद्भाव होता है। क्या आज धर्म से यह सब
मिल रहा है? जबकि आज
मोहल्ले, गली-गली, घर-घर में धर्म का प्रचार है बड़े-बड़े
आयोजन हो रहे हैं फिर ऐसा विपरीत असर क्यों?
धर्म के चारों ओर प्रचार के बाद भी आज तो परिवार, समाज, राष्ट्र में अशान्ति, भय, दुःख, दूरियां, पतन, हिंसा क्यों बढ़ रहा है? क्याधर्म का परिणाम इस प्रकार की
विकृति है? यदि धर्म
के प्रचार-प्रसार से इस प्रकार की अव्यवस्था हो तो फिर धर्म को मानने से क्या लाभ, फिर तो ऐसे धर्म कोन मानना ही ठीक
होगा। परन्तु ऐसा नहीं, धर्म तो
मानवता की आत्मा है बिना धर्म के तो मनुष्य को मनुष्य ही नहीं कहा गया है। इसलिए
धर्म मानना तो प्रत्येक मनुष्य को मनुष्य कहलाने के लिए पहला गुण है। परन्तु धर्म
वह है जो जीवन को उन्नति सद्ज्ञान, सद्कर्म के मार्ग पर ले जावे। जिसमें
एक दूसरे के प्रति त्याग भाव हो। जो मात्र दिखावा न होकर आचरण में, हमारे व्यवहार में समाया हो। वहीं धर्म
समाज व संसार को श्रेष्ठ सुखद स्थान पर ले जा सकता है। धर्म का कार्य श्रेष्ठ मानव
का निर्माण करना है। आज कावड़ यात्रायें निकाली जा रही हैं। एक से एक बढ़कर
काम्पटीशन हो रहा है, घर बार
छोड़कर युवक,युवतियां, पुरुष, महिला और छोटे-छोटे किशोर इसमें
सम्मिलित होते हैं। इसका मुख्य कार्य है एक स्थान से जल भरकर लाना और किसी दूसरे
स्थान पर उसे छोड़ना है। इसी कर्म व भावना के अनुसार ईश्वर को सिर्फ पानी चढ़ाकर
उसकी बड़ी भक्ति का कर लेना समझ लिया जाता है।
परन्तु थोड़ा विचार करें- परमात्मा को जल की आवश्यकता है क्या? दूसरा यह कि, जो जल आपने कहीं से भरा क्या वह आपका
अपना बनाया हुआ है?
इसका उत्तर होगा नहीं, न तो
परमात्मा को हमारे एक लोटे जल की आवश्यकता है और न ही जो जल हम चढ़ा रहे हैं वह
हमारा अपना है। क्योंकि हम उसे जल क्या देंगे जिसने बड़े-बड़े समुद्र पृथ्वी पर और
आकाश में बनाएं हैं बड़ी-बड़ी नदियां, तालाब और विशाल गगन चुंभी बर्फीले पहाड़
जिसने रचे हैं, बारिश का
अथाह पानी जो हम सबको देता है। इसलिए जो दाता है सबको देता है उसे उस एक लोटे पानी
की क्या जरूरत?
दूसरा यह कि जहां से पानी लाए वह भी उसी कादिया हुआ है। उसकी वस्तु उसी को
भेंट करके उसे प्रसन्न करने का प्रयास अज्ञानता है। किसी के घर जाकर उसी की वस्तु
घर से उठाकर उसे भेंट कर दें तो इससे वह खुश होगा यश हमारी अज्ञानता पर हंसेगा?
परमात्मा को कोई भी भौतिक वस्तु की न तो आवश्यकता है और न ही उसने कभी
ग्रहण की है। उसके नाम पर चढ़ावा करके हम ही उस वस्तु को प्रसाद के रूप में ग्रहण
कर लेते हैं। अरे, परमात्मा
को देना है तो वह दो जो तुम्हारा है। परमात्मा को देने के लिए स्वच्छ हृदय, शुभ कर्म, शुभ विचार और उसकी कृपा के प्रति सदभाव
हैं जो हमारे हाथ में हैं, इसके
स्वामी हम हैं, यह चढ़ाकर
उस परमातमा को प्रसन्न कर सकते हैं।
धार्मिक भाव से यात्रा बहुत अच्छी बात है। किन्तु इसकी सार्थकता व महत्त्व
के लिए जो यात्रा निकाली जाती है इसमें बहुत सुधार होना चाहिए। यात्रा के साथ कुछ
कर्मकाण्डी विद्वान भी चलें, रास्ते
में आने वाले ग्रामों अथवा शहरों में आध्यात्मिक कार्यक्रम करें, प्रतिदिन सुबह सायंकाल यज्ञ, भजन, कीर्तन और ज्ञान वर्धक उपदेश हों।
यात्रा के मध्य व्यक्ति, परिवार, समाज व राष्ट्र के प्रति अच्छे उद्गार
भरा वातावरण हो। दुर्गुण-दुर्व्यसनों को त्याग सद्गुण ग्रहण करने की प्रेरणा इसमें
मिले। किसी प्रकार का नशा व अभक्ष पदार्थों का पूर्णतः सेवन निषेध हो।
जितने दिन कावड़ यात्रा में रहे जीवन संयमित व आध्यात्मिक विचारों से पूर्ण
हो। समाज व संस्कृति रक्षा व प्रगति का सन्देश घर-घर पहुंचाने की योजना बनें ताकि
सनातन धर्म की अच्छाइयों को समाज समझे व उसके प्रति दृढ़ता हो। ऐसा कार्य कावड़
यात्रा में करना सार्थक है समय, शक्ति, सम्पत्ति का सदुपयोग है।
किन्तु इसके स्थान पर केवल मनोरंजन, नशीले पदार्थों का सेवन, अनुशासनहीनता का प्रदर्शन और मात्र
जगह-जगह लगे भोजन नाश्ते के कैम्पों का आनन्द लेने के लिए जो यात्राएं निकाली जावे
वे सार्थक नहीं हैं। कई बार देखा गया है कि अनेक कावड़िया गांजा, भांग और यहां तक कि शराब का सेवन करते
हुए भी देखे गए। कुछ निठल्ले, बेरोजगार
इसी बहाने कुछ दिन माजमस्ती में कट जायेंगे, यात्राओं में शामिल होते देखे गए। इन
सबसे मनोरंजन या अपना पैसा खर्च कर सस्ती लोकप्रियता अथवा अहम की तुष्टि तो हो
सकती है किन्तु युवा पीढ़ी का भटकाव समाज की सबसे बड़ी हानि है।
हमारे मुस्लिम सम्प्रदाय के उन व्यक्तियों से सीखना चाहिए जो यात्रा करते
हैं पर अपना खर्च करके सादा जीवन व्यतीत करके इस्लाम का घर-घर में प्रचार करते
हैं। इस्लाम के प्रति इस्लाम के अनुयायियों में कट्टरता आए। उनका ऐसा प्रयास उनके
मजहब की दृष्टि से सार्थक है समय व शक्ति की बर्बादी नहीं है। उनसे सीखकर सत्य
सनातन धर्म के लाभार्थ कुछ यदि हो सके तो ऐसी कावड़ यात्रा को निकालना सार्थक होगा।
-सभामंत्री, सार्वदेशिक आर्य प्रतिनिधि सभा, दिल्ली
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