पिछले वर्ष नेपाल अंतर्राष्ट्रीय महासम्मेलन की सफलता के बाद अगले
महासम्मेलन के लिए ब्रह्मदेश का चुना जाना एतिहासिक द्रष्टिकोण में एक गौरव का
विषय है। ब्रह्मदेश यानि बर्मा और आज वर्तमान में म्यंमार कहा जाता है। इसी
म्यांमार के मध्य में बसने वाले शहर मांडले का आर्य महासम्मेलन के लिए चुना जाना
हमारे लिए और भी सौभाग्य का क्षण है। यह स्वतंत्र बर्मा की भूतपूर्व राजधानी, मुख्य व्यापारिक नगर एवं आवागमन का
केंद्र है जो इरावदी नदी के बाएँ किनारे पर रंगून से लगभग 350 मील उत्तर दिशा में बसा है, कहते हैं इसे 1856-57 ई. में राजा मिंडान ने इसे बसाया था।
शहर में बौद्ध धर्मावाल्म्बियों के अतिरिक्त हिन्दू, मुसलमान, यहूदी, चीनी एवं अन्य जाति के लोग निवास करते
हैं। द्वितीय महायुद्ध के समय 1942 ई. को
जापानियों ने इस पर अधिकार कर लिया था। उस समय राजमहल की दीवारों के अतिरिक्त लगभग
सभी इमारतें जल गई थीं। तब जापानियों ने इसे ‘‘जलते हुए खंडहरोंवाला नगर’’ कहा था हालाँकि आज मांडले से बर्मा की
सभी जगहों के लिये स्टीमर सेवाएँ हैं तथा यह रेल एवं सड़क मार्ग द्वारा भी देश के
अन्य हिस्सों से जुड़ा है। कभी वैदिक सभ्यता काल के इस ब्रह्मदेश में आज पगोडा शैली
में बने भवन व मंदिर बौद्ध स्पुत बौद्ध धर्म से जुड़ी आस्था के केंद्र होने का
आसानी से पता चल जाता है।
मांडले का मौसम लगभग भारत जैसा ही है। सर्दियों में कड़ी सर्दी, गर्मियों में आकाश से लेकर धरती तक
भट्टी की तरह तपती है तो बरसात में भारी वर्षा भी यहाँ होती है। मंदिरों, प्राकृतिक सुषमा और सौन्दर्य से भरपूर
यह शहर अपनी अनेक विशेषताओं के कारण भी जाना जाता है। यहाँ दुनिया की सबसे बड़ी
पुस्तक के रूप में एक मंदिर विधमान है यानि कि किताब के हर प्रष्ठ के रूप में एक
मंदिर बना है जिनकी संख्या करीब 500 से ज्यादा
है।
इस वर्ष महासम्मेलन की तैयारियों से जुड़े सम्बन्धित कार्यों का जायजा लेने
के लिए मेरा मांडले जाना हुआ तो मांडले की धरती पर पांव पड़ते ही भारत के महान गौरव
लाला लाजपत राय और बाल गंगाधर तिलक, नेताजी सुभाषचंद्र बोस मन में उभर आये।
मांडले में ब्रिटिश शासनकाल में यहां किलानुमा जेल थी जहाँ भारत माता के इन वीर
सपूतों को बंदी बनाकर रखा गया था। किले के अवशेष आज भी भारतीय क्रांति की स्मृति
ताजा कर देते हैं। प्रसिद्ध आर्य समाजी लाजपत राय समेत कई क्रन्तिकारी यहाँ एकांतवास
में रखे गये थे। अकेले और असुविधाओं के बीच, सिर्फ इसलिए कि आर्य समाज भारत देश से
गुलामी की बेड़ियाँ काटकर फेंक देने पर अडिग था जिसे अंग्रेजी हकुमत नहीं चाहती थी।
हालाँकि बर्मा की गलियों में आर्य समाज के नाम का डंका बज चुका था। क्योंकि
आर्य समाज की स्थापना के बाद बर्मा के इसी मांडले शहर में वैदिक धर्म के
अनुयायियों महर्षि दयानन्द के अनन्य भक्तों का आगमन लगभग सन् 1897 में हो गया था। भौगोलिक इतिहास में कभी
भारत से जुड़े इस देश में महर्षि दयानन्द, पंडित लेखराम स्वामी श्रद्धानन्द समेत
अन्य समकालीन महात्माओं, संतो के
वैदिक उपदेश जब यहाँ के लोगों के कानों में गूंजे तो शीघ्र ही बर्मा के प्रसिद्ध नगर
रंगून (यंगून) और मांडले में आर्य समाज मंदिर बन गये। यह सब कार्य वैदिक धर्म प्रेमी लोग बड़े
उत्साह और लग्न से करने लगे। वैदिक ध्वज एक फिर ब्रह्मदेश की धरती पर लहरा उठा।
धीरे-धीरे वर्ष बढ़ते गये अगली सदी के सूर्य उदय के साथ आर्य समाज दिन-दूनी
रात-चौगनी प्रगति करने लगा। आर्य समाज की गतिविधियां विद्यालय, अनाथालय, सत्संग संचालित होने लगे प्रत्येक बड़े
शहर में जैसे रंगून, माण्डले, लाशियो, मिचिना, मोगोग, जियावाड़ी में स्थापित अनाथालय, स्कूल व सामाजिक संस्थाओं के कार्यों
समेत स्त्री समाज की शिक्षा के प्रोत्साहन को लेकर तथा अन्य सामाजिक बुराइयों के
खिलाफ आर्य समाज के कार्यों ने लोगों का मन जीत लिया था। लोग अपने साधारण भवनों के
साथ जमीन और पैसे समाज के कार्यों के लिए दान स्वरूप भेंट करने लगे।
लेकिन जल्दी ही नई सदी के इस सूर्य को दूसरे विश्व युद्ध का ग्रहण लग गया
जो द्वितीय विश्व यु( के बाद बर्मा में पैदा हुए भारत विरोधी रुझान का शिकार बन
गया था। उस समय रंगून में आधी आबादी भारतीयों की थी। वे ब्रिटिश प्रशासन में महत्त्वपूर्ण
पदों पर थे और इसीलिए बर्मा के नागरिकों के निशाने पर थे। उन्हें नस्लभेदी हमलों
का सामना भी करना पड़ा। सन् 1962 में
भारतीयों को बर्मा से निकाला जाने लगा और उनकी निजी और धार्मिक सम्पति का
राष्ट्रीयकरण किया जाने लगा था। उस समय भारतीय मूल के लगभग तीन लाख लोगों को बर्मा
से पलायन करना पड़ा था।
बर्मा में सैनिक शासन के प्रारम्भ के साथ वैदिक साहित्य आदि पर रोक लगा दी
गयी। बौद्ध धर्मी बहुसंख्यक इस प्रदेश में नवीन साहित्य के प्रकाशन, बिक्री आदि पर रोक लगा दी गयी। एक
किस्म से आर्य समाज के उत्साहित विद्वानों के उत्साह आर्य समाज के कर्मठ
कार्यकर्ताओं के कार्यों पर चोट जैसा था। लेकिन इसके बावजूद भी हमारा प्रणाम और
नमन उन आर्य कार्यकर्ताओं को जिन्होंने फटे, पुराने आर्ष ग्रन्थों से ही वेद की
ज्योति के दीपक को बुझने से बचाए रखा। यदि आज वर्तमान में बर्मा के अन्दर आर्य
समाज की बात की जाये तो शहरी क्षेत्रों की आर्य समाज मंदिर बेहद भव्य तो ग्रामीण
क्षेत्रों की आर्य समाजें वैदिक ज्ञान की लोलुपता के कारण खस्ताहाल हैं। आज मुझे
लिखते हुए हर्ष हो रहा है कि आर्य महासम्मेलन जैसा गौरवान्वित कार्य को करने में
सार्वदेशिक सभा के तत्वावधान में एक बार फिर करीब 120 साल बाद दयानन्द के सिपाही मांडले में
अंतर्राष्ट्रीय महासम्मेलन आयोजित कर ब्रह्मदेश (म्यांमार) में वैदिक ज्योति को
पुनः उसी वेग से जागृत करने का कार्य करेंगे।
-विनय आर्य
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