बात किसी
धर्म-मजहब या सम्प्रदाय की नहीं है. बात है इंसानी संवेदनाओं की जो हमें एक दुसरे
से जोड़कर एक परिवार, समाज, देश और दुनिया
बनाती है. तीन तलाक और हलाला के खिलाफ भारत में नहीं पुरे विश्व में मुस्लिम
महिलाएं मुखर हो चली है. हाल ही में एक मुस्लिम महिला ने अपना वीडियो अपलोड कर
तलाक और हलाला के खिलाफ जमकर मोर्चा खोला. जिसमें तलाक से दुखी उस महिला ने
मुस्लिम महिलाओं को हिन्दू अपनाने की भी प्रेरणा दे डाली. दरअसल मौखिक तलाक और
उसके बाद हलाला अब सिर्फ धर्म विशेष के धार्मिक कानून की आड़ में शारारिक शोषण और
व्यापार का हिस्सा बनता जा रहा है. बीबीसी की एक पड़ताल में पता चला है कि तलाकशुदा
मुस्लिम महिलाओं को इस्लामिक विवाह श्हलालाश् का हिस्सा बनाने के लिए कई ऑनलाइन
सेवाएं उनसे हजारों पाउंड की कीमत वसूल रही हैं. इन मुस्लिम महिलाओं हलाला का
हिस्सा बनने के लिए पहले पैसे देकर एक अजनबी से शादी करनी होती है, उसके
साथ शारारिक संबध बनाने होते है, फिर उस अजनबी को तलाक़ देना होता है
ताकि वे अपने पहले पति के पास लौट सकें.
फराह जब 20
साल की थीं तब परिवारिक दोस्त के माध्यम से उनकी शादी हुई. दोनों के बच्चे भी हुए,
लेकिन फराह का कहना है कि आगे चलकर उनकी प्रताड़ना शुरू हो गई. फराह
बताती हैं, “मैं
घर में अपने बच्चों के साथ थी और वो काम पर थे. एक गर्मागर्म बहस के दौरान
उन्होंने मुझे एक टेक्स्ट मैसेज भेजा- तलाक़, तलाक़,
तलाक.”
यह तीन तलाक है जिसमें पति अपनी पत्नी को तीन बार तलाक़ कहता है. मुस्लिमों के बीच
यह प्रचलन में है और ऐसा कहने से इस्लामिक विवाह ख़त्म हो जाता है. फराह का कहना
है कि वह बुरी तरह से घबरा गई थीं, लेकिन वह अपने पूर्व पति के पास लौटना
चाहती थीं. लेकिन हलाला एकमात्र उपाय है जिसके सहारे तलाक़शुदा जिंदगी ख़त्म हो
सकती है और विवाह को फिर से बहाल किया जा सकता है. लेकिन कई मामलों में जो महिलाएं
हलाला चाहती हैं, उनके लिए यह जोखिम भरा रहता है. मुस्लिमों के
एक बड़े वर्ग का मानना है कि आर्थिक रूप से इनका दोहन किया जाता है, ब्लैकमेल
किया जाता है और यहां तक की यौन प्रताड़ना का भी सामना करना पड़ता है
फराह हताशा के
कारण अपने पति से जुड़ना चाहती थीं. फराह ने हलाला को अंजाम देने वाले लोगों की
तलाश शुरू की. जिसमें कई लोग तो ऑनलाइन इस हलाला के जिस्मानी और आर्थिक कारोबार से
जुड़े है जो एक रात के दो से ढाई लाख रूपये वसूलते है. फराह बताती है श्श्मैं जानती थी कि जो लड़कियां
परिवार से पीछे छूट गई थीं, उन्होंने वापसी के लिए ऐसा किया. वे
मस्जिद गईं. वहां पर एक ख़ास कमरा होता है जिसे बंद कर दिया जाता है. यहां इमाम या
कोई और इसे अंजाम देता है. वह महिला के साथ सोता है और वह अन्य लोगों को भी उस
महिला के साथ सोने की इजाजत देता है.श्श् फराह ने आख़िर में तय किया कि वो अपने
पूर्व पति के साथ नहीं जाएंगी और न ही हलाला का रास्ता अपनाएंगीं. वो कहती हैं,
श्श्आप एक तलाकशुदा औरत की हालत नहीं समझ सकते. उस दर्द को एकाकीपन
को नहीं समझ सकते. कुछ औरतें जैसा महसूस करती हैं आपको अंदाजा भी नहीं होता."
यह सिर्फ एक
मुस्लिम महिला की कहानी नहीं है अमूमन हर जगह किसी न किसी के साथ यह घटना घट रही
है. विवाह जैसी पवित्र रस्म की मौखिक रूप तीन बार तलाक कहकर धज्जियां उड़ा दी जाती
और एक महिला को उसके हालात पर छोड़ दिया जाता यदि किसी कारण उसे अपनाना भी चाहें तो
एक इस्लामिक कानून के तहत उसे हलाला जैसे अमानवीय कुप्रथा से गुजरना पड़ता है. आज
इस्लामिक सुधार को लेकर दुनिया भर में के मुस्लिम विद्वान इस्लाम के जानकर इसमें
सुधार करने की बात को दबे स्वर ही सही लेकिन उठा रहे है. लेखक, विचारक
तुफैल अहमद लिखते है कि इस्लामी सुधार के बारे में एक महत्वपूर्ण सवाल ये है कि-
क्या मुसलमान युवा पीढ़ी अपने माता-पिता और इस्लामी मौलवियों से विरासत में मिले
विचारों का त्याग कर सकती है? सौभाग्य से, इतिहास
से हमें आशावादी सबक मिलते हैं- युवा पीढ़ी ने इटली और जर्मनी में नाजीवाद और
फासीवाद को लेकर अपने माता-पिता की मान्यताओं को त्याग दिया था. भारत में भी,
हिंदू युवाओं ने जाति और सती प्रथा का त्याग किया. ईसाई धर्म और
यहूदीवाद ने आंतरिक संघर्ष झेले, बाइबल और टोरा आम लोगों की जिंदगी से
हट गया. चूंकि मध्य पूर्वी धर्मों में इस्लाम सबसे कम उम्र का है, तो
उम्मीद की जा सकती है. कि तीन तलाक आदि कुप्रथाओं पर सही फैसला हो. कुरान की
भूमिका मस्जिदों तक सीमित होनी चाहिए. न की उसका हस्तक्षेप सामान्य जीवन में.
मेरा मकसद किसी
एक कौम को निशाना बना कर उसके मजहब का मजाक उड़ाना नहीं है. हम अगर किसी बात को
नहीं मानते तो जरूरी नहीं कि सब न मानें, लेकिन ये सोचना
जरूरी है कि क्या मुसलमान ये समझते हैं कि भारत में उनको एक आने वाले बेहतर कल के
लिए किस किस्म की सोच से छुटकारा पाना जरूरी है? मैं टीवी
आदि पर या न्यूज प्रोग्राम की बहस देखता हूँ कि हिंदुस्तानी मुसलमानों का एक धडा
पर्सनल लॉ बोर्ड को बचाने में लगे हुए हैं, पिछले माह ही केरल हाई कोर्ट के एक यह
कहते हुए ही जज ने सवाल उठाया कि अगर एक मुसलमान मर्द चार बीवियां रख सकता है,
तो एक मुस्लिम महिला चार पति क्यों नहीं रख सकती? कोझिकोड
में महिलाओं के एक सेमिनार में जस्टिस बी कमाल पाशा ने कहा था मुस्लिम पर्सनल लॉ
बोर्ड में महिलाओं से जुड़े कई मुद्दों को लेकर भेदभाव है.ख़ासकर दहेज, तलाक़
और उत्तराधिकार के मामले पर भेदभाव होता है और जिन धार्मिक नेताओं ने ये हालात
पैदा किए हैं, वे इससे पीछा छुड़ाकर नहीं भाग सकते.” चूंकि
कुरान और हदीस में बदलाव नहीं हो सकते, तो क्या भारतीय
मुस्लिमों के बीच परिवर्तन लाने का कोई रास्ता है?
लेखक राजीव चौधरी
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