दहेज के लिए नई
नवेली दुल्हन की हत्या, दहेज के लिए महिला की हत्या, दहेज
के लिए युवती को घर से निकाला या फिर दहेज की मांग पूरी न होने पर महिला पर
अत्याचार. इस तरह की खबरें अक्सर हमारें बीच से निकलकर अख़बारों की सुर्खियाँ बनती
है. अधिकांश खबरें उस वर्ग से जुडी होती है जिसे हम पढ़ा लिखा सभ्य वर्ग कहते है.
गरीब तबके से इस तरह की खबर बहुत कम ही सुनने में आती है. देखा जाये तो आमतौर पर
हम सब दहेज के खिलाफ है. बस सिवाय अपने बच्चों की शादी छोड़कर. कुछ इस तरह की सोच
लेकर कि इसमें सारा दिखावा हो जाये कोई यह ना कह दे कि शादी में कुछ कमी रह गयी.
हाल ही में
बिहार के मुख्यमंत्री नितीश कुमार ने बाल विवाह और दहेज प्रथा जैसी समाज की
बुराइयों को खत्म करने के लिए लोगों से अपील की है. उन्होंने लोगों से कहा कि वे आगे से
ऐसी शादियों का बहिष्कार करें, जहां पर दहेज का लेन-देन हो. उनका कहना
है कि शादी में जाने से पहले इस बात की जाँच कर ले कि कहीं उस शादी में दहेज का
लेन देन तो नहीं हुआ है और अगर हुआ है, तो वे ऐसी
शादियों में ना जाए. ऐसा करने से समाज को सुधारने में प्रभावशाली ढंग से मदद
मिलेगी. निश्चित ही यह नितीश कुमार का एक स्वागत योग्य कदम है. यदि समाज इसका
अनुसरण करें. तो ही हम सब मिलकर समाज से एक बुराई खत्म कर सकते है. एक बुराई जिसे हमने
मान सम्मान का विषय बना लिया है. संक्षेप में, कहे तो
ये प्रथा इस उपधारणा पर आधारित बन गयी कि पुरुष सर्वश्रेष्ठ होते है और अपनी
ससुराल में हर लड़की को अपने संरक्षण के लिये रुपयों या सम्पत्ति की भारी मात्रा
अपने साथ अवश्य लानी चाहिये. वो जितना ज्यादा लाएगी इस कुल का समाज में इतना ही
मान बढ़ेगा.
गंभीरता से देखा
जाये तो दहेज प्रथा हमारे सामूहिक विवेक का अहम हिस्सा बन गयी है और पूरे समाज के
द्वारा स्वीकार कर ली गयी है. एक तरह से ये रिवाज समाज के लिये एक नियम बन गया है
जिसका सभी के द्वारा अनुसरण होता है, स्थिति ये है कि यदि कोई दहेज नहीं
लेता है तो लोग उससे सवाल करना शुरु कर देते है और उसे नीचा दिखाने की कोशिश करते
है. या फिर यह कहते है कि परिवार या लड़के में कुछ कमी होगी तभी दहेज की मांग नहीं
की! प्राचीन काल राजा महाराजा तथा धनवान लोग सेठ साहूकार अपने बेटियों के शादी में
हीरे, जवाहरात, सोना, चाँदी आदि
प्रचुर मात्रा से दान दिया करते थे. धीरे -धीरे यह प्रथा पुरे विश्व में फैल गई और
समाज जिसे ग्रहण कर ले वह दोष भी गुण बन जाता है. इस कारण नारी को पुरुष की अपेक्षा
निम्न समझा जाने लगा. यधपि पिता द्वारा बेटी को उपहार देना ये स्वैच्छिक प्रणाली
थी. पिता द्वारा सम्पत्ति का एक भाग अपनी बेटी को उपहार के रुप में देना एक पिता
का नैतिक कर्त्तव्य माना जाता था लेकिन तब व्यवस्था शोषण की प्रणाली नहीं थी जहाँ
दुल्हन के परिवार से दूल्हे के लिये कोई एक विशेष माँग की जाये, ये
एक स्वैच्छिक व्यवस्था थी. इस व्यवस्था ने दहेज प्रथा का रुप ले लिया. जबकि एक
सामाजिक बुराई के रुप में यह प्रथा न केवल विवाह जैसे पवित्र बंधन का अपमान करती
है बल्कि ये औरत की गरिमा को घोर उल्लंघित और कम करती है
दहेज के लिए
हिंसा और हत्या में आज बड़ा सवाल बन चूका है. राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़े बताते हैं. देश में औसतन हर एक घंटे
में एक महिला दहेज संबंधी कारणों से मौत का शिकार होती है. केंद्र सरकार की ओर
2015 में जारी आंकड़ों के मुताबिक, बीते तीन सालों में देश में दहेज
संबंधी कारणों से मौत का आंकड़ा 24,771 था. जिनमें से 7,048 मामले सिर्फ उत्तर
प्रदेश से थे. इसके बाद बिहार और मध्य प्रदेश में क्रमश: 3,830 और 2,252 मौतों का
आंकड़ा सामने आया था. इसमें सोचने वाली बात यह कि सामाजिक दबाव और शादी टूटने के भय
के कारण ऐसे बहुत कम अपराधों की सूचना दी जाती है. इसके अलावा, पुलिस
अधिकारी दहेज से सम्बंधित मामलों की एफ.आई.आर, विभिन्न
स्पष्ट कारणों जैसे दूल्हे के पक्ष से रिश्वत या दबाव के कारण दर्ज नहीं करते. दूसरा
आर्थिक आत्मनिर्भरता की कमी और कम शैक्षिक के स्तर के कारण भी बहुतेरी महिलाएं
अपने ऊपर हो रहे दहेज के लिये अत्याचार या शोषण की शिकायत दर्ज नहीं करा पाती.
इसमें किसी एक
समाज या समुदाय को दोषी नहीं ठहराया जा सकता. पिछले वर्ष ही बीएसपी पार्टी के
राज्यसभा सांसद नरेंद्र कश्यप और उनकी पत्नी को पुत्रवधु की हत्या के मामले में
गिरफ्तार किया गया था. दूसरा बिहार के पूर्व सीएम जीतनराम मांझी की बेटी और नाती
द्वारा दहेज के लालच में हत्या का मामला सामने आया था. कहने का तात्पर्य यही है कि
दहेज प्रथा पूरे समाज में व्याप्त वास्तविक समस्या है जो समाज द्वारा प्रत्यक्ष या
अप्रत्यक्ष रुप से समर्थित और प्रोत्साहित की जाती है और आने वाले समय में भी इस
समस्या के सुधरने की कोई उम्मीद की किरण भी नजर नहीं आती.
भौतिकतावाद
लोगों के लिये मुख्य प्रेरक शक्ति है और आधुनिक जीवन शैली और आराम की खोज में लोग
अपनी पत्नी या बहूओं को जलाकर मारने की हद तक जाने को तैयार हैं. आज कानून से बढ़कर
जन-सहयोग जरूरी है. खासकर महिलाओं को आगे आना होगा जब हर एक घर परिवार में महिला
समाज ही इसके खिलाफ खड़ा होगा तो निसंदेह यह बीमारी अपने आप साफ हो जाएगी. साथ ही
युवा वर्ग के लोगो को आगे आना जाहिए उन्हें स्वेच्छा से बिना दहेज के विवाह करके
आदर्श प्रस्तुत करना चाहिए. सोचिये आखिर कब तक विवाहित
महिलाएं दहेज के लिये निरंतर अत्याचार और दर्द को बिना किसी उम्मीद की किरण के साथ
सहने के लिये मजबूर होती रहेगी?
विनय आर्य
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