कभी दंतेवाडा
कभी बस्तर, कभी उडी तो कभी सुकमा जवान शहीद होते रहेंगे हम
लोग बस शहीद गिनते रहेंगे
और राजनेता निंदा के साथ मुंहतोड़ जवाब देने की बात करते रहेंगे.
हुर्रियत हो या नक्सलवाद ये विचारधारा दिन पर दिन हावी होती जा रही है. कुछ लोग
नक्सलियों को आतंकी नहीं मानते तो तो कुछ पत्थरबाजों को मासूम कहने से नहीं हिचकते.
या फिर भ्रमित विचारधारा के शिकार कहकर इनका बचाव किया जाता है. एक छोटा सा देश
श्रीलंका, लिट्ठे का नामोनिशान मिटा देता है, यहाँ
स्वयं को महाशक्ति समझने वाला भारत नक्सलियों से पचासों साल से जूझ रहा है. हर
हमले के बाद राजनेता ट्वीट कर निंदा कर देते है. मीडिया एक दिन बहस कराकर अगले दिन मानवता के पाठ के मासूम
बताने लगती है.
इन 26 जवानों की
शाहदत से देश के किस नौजवान का खून नहीं खोला होगा. किस माँ की आँखे नम नहीं हुई
होगी, 26 घरों के चिराग बुझ गये क्या अब भी वे नक्सलियों को सही ठहराएंगे? यदि
नहीं तो कब तक हम श्रद्धांजलि देते रहेंगे? आज का
नक्सल आंदोलन 1967 वाला आदर्शवादी आंदोलन नहीं रहा है. बल्कि यह साम्यवादियों द्वारा
रंगदारी वसूलनेवाले आपराधिक गिरोह में बदल चुका है. इन पथभ्रष्ट लोगों का साम्यवाद
और गरीबों से अब कुछ भी लेना-देना नहीं है. हाँ, इनका
धंधा गरीबों के गरीब बने रहने पर ही टिका जरूर है इसलिए ये लोग अपने इलाकों में
कोई भी सरकारी योजना लागू नहीं होने देते हैं और यहाँ तक कि स्कूलों में पढ़ाई भी
नहीं होने देते. आप ही बताईए कि जो लोग देश के 20 प्रतिशत क्षेत्रफल पर एकछत्र
शासन करते हैं वे भला समझाने से क्यों मानने लगे?
हर दिन, हर
सप्ताह, हर महीना, हर साल भारतीय जवान मरते रहते है, राजनेता
आरोप प्रत्यारोप लगाकर इस खून सनी जमीन पर मिटटी डालते रहते है. लगता है वोट के इस
बड़े धंधे में जवानों को झोंका जा रहा है आज हमारी वर्तमान केंद्र सरकार नक्सली
समस्या को जितने हल्के में ले रही है यह समस्या उतनी हल्की है नहीं है. यह समस्या
हमारी संप्रभुता को खुली चुनौती है, हमारी एकता और अखंडता के मार्ग में
सबसे बड़ी बाधा है. हमेशा से नक्सलवादी इलाकों में सरकार योजना लेकर जाती है. लेकिन
लाशे लेकर आती है. भला क्या कोई ऐसी समस्या स्थानीय हो सकती है? क्या
यह सच नहीं है कि हमारे संविधान और कानून का शासन छत्तीसगढ़ राज्य के सिर्फ शहरी
क्षेत्रों में ही चलता है? क्या यह सच नहीं है कि वहाँ के नक्सली
क्षेत्रों में जाने से हमारे सुरक्षा-बल भी डरते हैं तो योजनाएँ क्या जाएंगी?
आज इन सवालों से
मुंह नहीं मोड़ा जा सकता कि भारत के मध्य हिस्से में नक्सल बाहुल इलाकों में इन
लोगों के पास धन और हथियार कहाँ से आता है? कौन लोग
इन्हें लाल क्रांति के नाम पर उकसा रहे है? यदि
सरकार विश्व के सामने अपनी उदार छवि पेश करना चाहती तो उसे सुरक्षित भारत की छवि
भी पेश करनी होगी. जम्मू-कश्मीर और मिजोरम के बाद कई राज्य संघर्ष के तीसरें केंद्र
के रूप में उभरे हैं जहाँ पर माओवादियों के विरूद्ध सुरक्षा बलों की व्यापक तैनाती
हुई हैं पिछले लगभग साढ़े चार दशकों से चल रहा माओवाद जैसा कोई भी भूमिगत आंदोलन
बिना व्यापक जन सर्मथन और राजनेताओं के संभव है? लंबे
अरसे से नक्सल अभियान पर नजर रखे सुरक्षा विशेषज्ञों का मानना है कि बिना तैयारी
के सुरक्षा बलों को नक्सल विरोधी अभियान में झोंक देना भूखे भेडि़यों को न्योता
देने के बराबर है.
नक्सल अकसर ही गुरिल्ला लड़ाई का तरीका अपनाते हैं और उनकी हमला
कर गायब होने जाने की रणनीति सुरक्षा बलों के लिये खासा खतरनाक साबित हुआ है.
नक्सली जिन इलाकों में अपना प्रभाव रखते हैं वहाँ पहुंचने के साधन नहीं हैं. पिछले
दस सालों से इन इलाकों में न ही सरकार और न ही सुरक्षा एजेंसियों ने प्रवेश करने
का जोखिम लिया है. जिस कारण यह लोग मजबूत होते गये. एक समय देश की सड़कों पर जाते
समय छायादार वृक्ष दिखाई देते थे आज किसी पर सडक पर निकल जाओं शहीद सिपाहियों के
स्मारक दिखाई देते हैं. जब मौत केवल आंकड़ा बन जाए. जवाब केवल ईंट और पत्थर में
तोला जाए. जब दर्द, हमदर्द देने लगें. तो सुकमा बार बार होगा. जबकि
इस देश का इतिहास देखे तो युद्ध के दौरान कई बार कृष्ण ने अर्जुन से परंपरागत
नियमों को तोड़ने के लिए कहा था जिससे धर्म की रक्षा हो सके. कर्ण की हत्या इसका
सबसे बड़ा उद्धरण हैं, युद्ध के दौरान कर्ण निःशस्त्र थे तब कृष्ण ने
अर्जुन से कहा हे पार्थ धर्म की जीत के लिए कर्ण का वध जरूरी है.....विनय
आर्य
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