19-20-21 नवम्बर को सार्वदेशिक आर्य प्रतिनिधि
सभा द्वारा आसाम नागालैंड की भूमि पर विराट जनजातीय वैदिक महासम्मेलन की सफलता
आर्य समाज के इतिहास में अपनी एक अलग अमिट छाप छोड़ गयी। अक्तूबर महीने में नेपाल
आर्य महासम्मेलन की सफलता के बाद इसे आर्य समाज का एक साहसिक कदम कहा जाना चाहिए।
साहसिक कदम इसलिए क्योंकि जिस राज्य में 87 फीसदी से ज्यादा ईसाई मत को मानने वाले
लोग हों वो स्थान जो क्षेत्रीय आतंक से त्रस्त हो, जहाँ की खबरे भी भारतीय मीडिया कभी
ग्राउंड से लाने की कोशिश नहीं करता ऐसी जगह विराट जनजातीय वैदिक महासम्मेलन कर
हजारों की भीड़ जुटाना अपने आप में आर्य समाज का नाम इंद्रधुनष के बराबर में लिखने
जैसा है। वैसे तो आर्य समाज अपनी स्थापना से ही लगातार समाज सुधार के कार्यों से
लेकर आजादी तक सबसे अग्रणी भूमिका में रहा, आर्य समाज के कार्यों की कोई तुलना
नहीं की जा सकती लेकिन सार्वदेशिक आर्य प्रतिनिधि सभा द्वारा पूर्वोत्तर राज्यों
में देव दयानन्द के शिक्षा के मिशन को आगे बढ़ाते हुए जो कार्य किया वह अतुलनीय है।
यदि ये कार्य आज से 50 साल पहले होता तो आज सांस्कृतिक, धार्मिक और सामाजिक रूप से पूर्वोत्तर
राज्यों की यह हालत न होती बहरहाल उत्तर पूर्वी भारत में सात राज्य शामिल हैं जिन्हें सम्मिलित रूप से “सात बहनें”(Seven Sisters ) कहा जाता है यहाँ आर्य समाज की यह दस्तक किसी क्रांति से कम नहीं
है.
दीमापुर प्राकृतिक रूप से बहुत खूबसूरत होने के साथ-साथ एक ऐतिहासिक शहर भी
है। दीमापुर नाम का एक और अर्थ भी निकाला जाता है यह तीन शब्दों दी, मा और पुर से मिलकर बना है। कचारी भाषा
के अनुसार ‘दी’ का अर्थ होता है नदी, ‘मा’ का अर्थ होता है महान और ‘पुर’ का अर्थ होता है शहर। असम और नागालैंड
के घने जंगलों के बीच जहाँ चारों और दूर-दूर तक आदिवासी जनजाति के लोग रहते है ऐसी
जगह सार्वदेशिक आर्य प्रतिनिधि सभा ने आगे बढ़कर यहाँ के जनजातीय समुदाय के बीच
पहुंचकर दयानन्द आर्य विद्या निकेतन के नाम से एक भव्य भवन यहाँ के समुदाय की
शिक्षा लिए खोला। यहाँ पारंपरिक रूप से जंगल और वन-भूमि ही जनजातीय लोगों का आश्रय
स्थल है और जीविकोपार्जन का माध्यम भी है। यहाँ एक लोककथा प्रचलित है कि इस जगह
महाभारत काल में हिडिंबा राक्षस और उसकी बहन हिडिंब रहा करते थे। यही पर हिडिंबा
ने भीम से विवाह किया था। यहां बहुलता में रहने वाली डिमाशा जनजाति खुद को भीम की
पत्नी हिडिंबा का वंशज मानती है।
आप सब भलीभांति परिचित हैं कि पूर्वोत्तर राज्य किस प्रकार अन्य समुदाय
खासकर ईसाईयों के जाल में फंस चुकें हैं? पूर्वोत्तर राज्य ही क्या जिन राज्यों
में आर्य समाज के शिक्षण संस्थान/गुरुकुल या जिस राज्य में आर्य समाज अछूता रहा है
वहां-वहां अन्य मिशनरियां जबरदस्त कामयाब रहीं। जिसका उदाहरण दक्षिण भारत और
पूर्वोत्तर राज्य हैं। यहां से हमारी प्राचीन संस्कृति, हमारी धरोहर, हमारा धर्म सब कुछ चौपट किया जा चुका
है। महाशय धर्मपाल जी का धन्वाद देना चाहते हैं जिन्हांने दयानन्द आर्य विद्या
निकेतन दीमापुर यह स्कूल वहां के अति पिछड़े-आदिवासी और वनवासी लोगों को समर्पित
किया ताकि वहां के गरीब बच्चों को अच्छी शिक्षा व संस्कार उपलब्ध कराए जा सकें इस
दृष्टि से वहां बड़े विधालयां का निर्माण कराया जा रहा है।
इस कड़ी में अब तक दो
विशाल विद्यालय बन चुके हैं तथा उनमें पढाई भी आरम्भ हो चुकी है परन्तु अत्यधिक
निर्धन क्षेत्र में स्थित होने के कारण इसके निरंतर संचालन में कुछ मूल समस्याओं
का सामना करना पड़ रहा है। यह विद्यालय जिस क्षेत्र में स्थित है उस पूरे क्षेत्र
में इसाई मिशनरीज ने 200 सालों से शिक्षा केंद्र खोलकर लाखों परिवारों को इसाई बना लिया है जिस कारण
हिन्दू शिक्षण संस्थान वहां न के बराबर हैं इस बात पर किसी ने समय रहते ध्यान नहीं
दिया, न सरकार और
ना ही किसी हिन्दू संगठन ने|
जिसका नतीजा यह है कि यदि नागालैंड के दीमापुर शहर को
गूगल अर्थ में सर्च करते हैं तो सुमी चाखेसंग चर्च, बेपिस्ट चर्च, लोथा और ओं चर्च समेत न जाने कितने
चर्च दिखाई देते हैं। वैदिक सभ्यता व हिन्दू संस्कृति के निशान भारत के इस हिस्से
से मिटा से दिए गये है। आर्य समाज और अन्य हिन्दू संस्थाओं ने बहुत बाद में इन
क्षेत्रों में शिक्षा का कार्य आरम्भ किया, किन्तु अब बहुत देर हो चुकी है। इसके
बाद भी आर्य समाज को विश्वास है कि यदि आप सभी का सहयोग मिला तो यह कार्य कठिन तो
है पर असंभव नहीं है। आज हम केवल अपने आस-पास की सोच रहे हैं वह भी कितना यह भी
विचारने का विषय है वहां की कौन सोचेगा?
हम सब जिस समय में रहते हैं उसके उत्तरदायी हम खुद होते हैं यदि आज हम )षि
दयानन्द के इस अधूरे कार्य में पीछे हटे तो अगली पीढ़ी द्वारा इसका उत्तरदायी हमें
ठहराया जायेगा बिल्कुल उसी तरह जिस तरह हम पिछली पीढ़ी को ठहरा रहे हैं। खैर हमारे
कहने का विषय यह था कि इन स्कूलों को खड़ा करने में कुछ बाधाएँ आ रही हैं जैसे ईसाई
स्कूलों की फीस काफी कम होना, हम ज्यादा नहीं ले सकते उनके अध्यापक
ट्रेंड होना, हमें
ट्रेंड अध्यापक काफी महंगे पड़ते हैं। ईसाई मिशनरीज के लगभग 250 स्कूल से अधिक हैं यदि ग्रामीण
क्षेत्रों में उनके 50 स्कूल लाभ में ना भी हां तो भी उनका गुजारा चल जाता है एक विद्यालय भी यदि
इस क्षेत्र में मजबूत होता है तो उनके सहारे अन्य विद्यालयों के खुलने और आगे बढ़ने
की राह बन जाती है।
ईसाई संगठनों के कार्य देखकर एक बार तो हमारा विश्वास उड़ गया
था कि यहाँ हिन्दुओं के लिए कुछ हो सकेगा! परन्तु कुछ स्थानीय लोगों व आर्यजनों के
सहयोग और हिम्मत से यह विश्वास पुनः लौट आया कि आर्य समाज के लिए यहाँ कुछ कार्य
हो सकेगा। जनजातीय समुदाय के पारम्परिक और सांस्कृति विरासत बचाने के लिए आर्य
समाज ने उन्हें शिक्षित करने का जो बीड़ा उठाया है उसमें व्यापक दृष्टिकोण अपना
कर काम करने से ही जनजातीय समुदाय का उत्थान सम्भव है। अन्त में हम आपको बताते
चलें कि कभी पूर्व में रहा महाभारत कालीन यह आर्यों का शहर आज ईसाईयों का वैटिकन
बनकर रह गया। आखिर इसका जिम्मेदार कौन? यदि हमें आर्यों के इस कार्य को आगे
बढ़ाना है तो पूर्वोत्तर के सभी राज्यों में शिक्षण संस्थान खोलने पड़ेंगे क्योंकि
आज समय है और इसका उत्तरदायित्व भी हम किसी और पर नहींं डाल सकते। अब जिम्मेदारी
हमारी है। राजीव चौधरी
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