हमारी
कलम लिखे भी तो क्या लिखे?
आखिर इस से पहले भी बहुत से लोगों ने
बहुत कुछ
इस सन्दर्भ में लिखा होगा। और अगर लिखने से ही कुछ होता तो पिछले कुछ दिनों से
भारत की राजनीति कब्रों, लाशों में लिपट कर न रह जाती| जिन्दा लोग, उनकी मूलभूत
सुविधाओं, उनकी जरूरतों को नजरअंदाज कर मुर्दों को मुद्दा बनाया जा रहा है| दादरी,
हैदराबाद के बाद अब 10 फरवरी को जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सिटी (जेएनयू) में मंगलवार
को उस वक्त भारी हंगामा हो गया जब वामपंथी छात्रों के समूह ने संसद हमले के
दोषी अफजल गुरू और जम्मू-कश्मीर लिब्रेशन फ्रंट (जेकेएलएफ) के को-फाउंडर मकबूल
भट की याद में
एक कार्यक्रम का आयोजन किया। इस आयोजन के बाद यहां हालात इतने बिगड़ गए कि प्रशासन को पुलिस
बुलाने की नौबत आ गई। विवाद की वजह यह रही कि इस कार्यक्रम को अफजल गुरु को शहीद का
दर्जा दिया गया नारे लगाये जा रहे थे लड़कर लेंगे आजादी,
कश्मीर में लेगे आजादी, तुम कितने अफजल मारोंगे हर घर से अफजल निकलेगा और खुले आम
पाकिस्तान जिंदाबाद के नारे लगाये जा रहे थे| जैसे पाकिस्तान में
हाफिज के अड्डों पर लगते है| जिसका एबीवीपी के छात्रों ने भारी विरोध किया।
गौर हो कि अफजल गुरू को 9 फरवरी 2013 को फांसी दी गई थी। वहीं मकबूल भट को 11 फरवरी 1984 को फांसी दी गई थी। आखिर कौन है यह लोग?
जो आतंक को सर्वोपरी बताकर राजनीति कर रहे है| कभी मस्जिद को शहीद कहते है, तो कभी आतंकियों को शहीद बताते है | जब इनकी नजर में मानवता
के हत्यारे शहीद होते है तो फिर इनकी नजर में वो कौन होते है जो देश की सीमा रक्षा
करते हुए अपने प्राण न्योछावर कर देते है? मुस्लिम देशों में रोजाना मस्जिदों में
धमाके होते है उन मस्जिदों के लिए शाहदत के क्या मापदंड है? या शाहदत की यह अजान
सिर्फ भारत में ही गुंजायमान रहती है?
आखिर
राजनीति ऐसी कौनसी मज़बूरी है जो इन देश द्रोहियों को पकड़ नहीं सकती इन राष्ट्र के
विभाजन करने वालो पर कानून को अपना काम क्यों नहीं करने दिया जाता? क्या भारत में
आतंक को मान्यता मिल गयी जो इस तरह के आतंक के अड्डे खुले आम चल रहे है| हाफिज सईद
के जेहादी ठिकानों और इन कॉलिजो के केम्पस में अंतर क्या रह गया? आखिर ऐसा क्या
लिख दू की ये सब ख़त्म हो जाये? कुछ लोग इतनी छोटी सी बात भी क्यों नहीं समझ पाते की आज आस्तीन
में पल रहे सांप कल के सुनहरे भविष्य की मासूम किलकारियों को जरुर ड्सेंगे
आज वोट बेंक की राजनीति को देखकर लगता है देश के अन्दर आतंकवाद
लाइलाज समस्या के रूप में नजर आ रहा है। हर बार आतंकवादी आते हैं और अपने नापाक इरादों को बेहद सफाई और चालाकी से
अंजाम देकर भाग खड़े होते हैं। या मारे जाते है,
जो मारे जाते है नेता लोग उनकी लाश लेकर उन्हें शहीद बता मजहब के नाम वोट बटोरते
है| क्या हमारी खुफिया एजेंसियां और सुरक्षातंत्र का बार-बार माखौल सिर्फ इसलिए उड़ता हैं,
की आतंक को मदद देश के अन्दर से ही
मिल रही है?
हर बार आतंकी हमले देश की आम जनता के मन मस्तिष्क को वे झिंझोड़ कर
रख देते हैं। मासूमों को अपनी जान गवानी
पड़ती है|
पठानकोट हमले को लेकर एनआईए की जांच-पड़ताल जारी
है। एनआईए को छानबीन में कई ऐसी चीज़ें मिली हैं जिनके हमले से संबंध की जांच की जा रही है। कठुआ और सांबा में हुए आतंकी हमलों में भी अफजल गुरु शहीद लिखे ऐसे परचे मिले
थे। मजारे शरीफ़ की जांच में भी आतंकियों के पास ऐसी चिट मिली
थीं। बताया जा रहा है कि अफजल की मौत के बाद जैश ने 'अफजल गुरु स्क्वाड' बनाया है। अफजल के नाम पर
नौजवानों को बहकाया जा रहा है। कम से कम 60 लड़कों को फिदाईन ट्रेनिंग दी गई है। संकट यह है कि आतंक का यह खेल सीमा पार से जारी है, और विडम्बना यह है कि इसको मदद अन्दर से मिल रही है अभी पिछले दिनों
राष्ट्रपति जी ने अपने एक भाषण में राष्ट्र को संबोधित करते हुए कहा था हमें हिंसा, असहिष्णुता और
अविवेकपूर्ण ताकतों से स्वयं की रक्षा करनी
होगी। आतंकवाद उन्मादी उद्देश्यों से प्रेरित है, नफरत की अथाह गहराइयों
से संचालित है, यह उन कठपुतलीबाजों
द्वारा भड़काया जाता है जो निर्दोष लोगों के सामूहिक संहार के
जरिए विध्वंस में लगे हुए हैं। यह बिना किसी सिद्धांत की लड़ाई है, यह एक कैंसर है जिसका
इलाज तीखी छुरी से करना होगा। आखिर वो तीखी छुरी कब चलेगी जब तक तो यह लोग इस देश
में हजारो अजमल कसाब, अफजल गुरु तैयार कर देंगे? राजीव चौधरी
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