कुछ समय पहले तक धर्म को ध्यान, साधना, मोक्ष, उपासना का विषय समझा जाता था लेकिन जिस
तरह राजनेता धर्म को माध्यम बनाकर आये दिन वोट की राजनीति कर रहें तो उसे देखकर
लगता है आने वाली नस्ले शायद यही समझें कि धर्म सिर्फ राजनीति का विषय है, आमजन का इससे कोई सरोकार नहीं है।
गुजरात चुनाव बड़ी तेजी से चल रहा है वहां विकास से जुड़े मुद्दे एक तरह से खामोश
हैं। पद्मावती, जनेऊ और
मंदिर दर्ष्शन ने बाकी के सब मुद्दों को पीछे छोड़ रखा है। गुजरात विधानसभा चुनावों
के बीच सोमनाथ मंदिर में दर्शन के दौरान प्रवेश रजिस्टर में राहुल गांधी का नाम
गैर-हिन्दू के रूप में दर्ज होने पर सियासी घमासान मचा है। तब से अब तक बहस इस बात
पर ज्यादा छिड़ी है कि राहुल का धर्म क्या है? हालाँकि कांग्रेस नेता रणदीप सुरजेवाला
ने प्रेस कॉन्फ्रेंस के दौरान कई सबूतों के साथ सफाई दी। सुरजेवाला ने कांग्रेस
उपाध्यक्ष की पुरानी तस्वीरें भी जारी कीं और इस दौरान कहा, मुझे यह कहने में कोई हिचकिचाहट नहीं
है कि राहुल गांधी न केवल हिन्दू हैं, बल्कि जनेऊधारी हैं और पी एल पुनिया
यहां तक बोल गये कि राहुल ब्राह्मण हैं। मतलब एक नेता ने उनके धर्म का बखान किया
तो दूसरे ने आगे बढ़कर जाति भी बता डाली।
धर्म और संस्कार के आधार पर देखें तो जिस प्रकार भारतीय शासन के तिरंगे
झंडे का विधान है उसमें तीन रंग और विशिष्ट विज्ञान है इसी प्रकार जनेऊ का भी
रहस्य है इसमें तीन दंड, नौ तंतु
और पांच गांठे होती हैं, तीन धागे
पृथ्वी, अन्तरिक्ष
और धु-लोक सत्व, रज और तम
तीन गुण का अर्थ छिपा होता है। ब्रह्मचर्य, गृहस्थ और वानप्रस्थ तीन आश्रम सन्यास
में इसे उतार दिया जाता है, तीन दण्ड
मन, वचन और
कर्म की एकता सिखाते हैं। तीन आचरण, आदर, सत्कार और अहिंसा सिखाते है, तीन तार आत्मा, परमात्मा और प्रकृति का ज्ञान देते हैं
साथ ही ज्ञान कर्म और उपासना इन तीन रहस्य को समझाया जाता है। लेकिन राजनीति का
जनेऊ धर्म से अलग होता है और उसके रहस्य को हर कोई समझता भी है।
पिछले कुछ वर्षों में नरेंद्र मोदी की आंधी ने बड़े बड़े परिवर्तन कर दिए।
धर्मनिरपेक्षता की टोपी उतार कर राहुल ब्राह्मण बन गए, राम कभी थे ही नहीं कहने वाले राम के
चरणों में पहुंच गए। शायद इसी काल को ध्यान में रखकर योगिराज श्रीकृष्ण ने कहा
होगा कि परिवर्तन संसार का नियम है। लगता है राहुल गाँधी को भी एहसास हो गया है कि
देश पर राज करने के सपने देखने हैं तो उनके लिए इफ्तार की दावत में मुसलमानों की
जालीदार टोपी पहनकर सामने आने की बजाए खुद को जनेऊधारी हिन्दू दिखाना होगा। शायद
कांग्रेस के इस खुले ऐलान से संघ के अधिकारियों के कानों में अमृत घुल गया होगा।
उनका नारा भी है जो हिन्दू हित की बात करेगा, वही देश पर राज करेगा।
भले ही नेहरू ने धर्म और राजनीति को भरसक अलग रखा लेकिन उनकी बेटी इंदिरा
गांधी कभी जनसंघ के दबाव में और कभी जनभावनाओं का दोहन करने के लिए, बाबाओं के चरण छूतीं या रूद्राक्ष की
माला पहने काशी विश्वनाथ के ड्योढ़ी पर फोटो खिंचवाती नजर आईं। इसके बाद अयोध्या
में राम जन्मभूमि का ताला खुलवाने, कट्टरपंथी नेताओं के दबाव में विधवा मुसलमान औरतों को अदालत से मिले इंसाफ
को पलटने, देश में
आधी शरियत लागू करने वाले और नाव पर तिलक लगाकर गंगा मैया की जय जयकार करने वाले
राजीव गांधी ही थे। शादी के बाद राजीव गांधी जब भी किसी पूजा-पाठ की जगह पर जाते
थे, सोनिया
उनके साथ रहती थीं।
लेकिन अब राहुल के सामने सबसे बड़ी चुनौती यह भी खड़ी हो गयी है कि वो खुद को
हिन्दू साबित कैसे करें? या इसका
राजनितिक प्रमाणपत्र कहाँ मिलेगा? दूसरा सोलह संस्कारों में से एक जनेऊ संस्कार क्या अब राजनेताओं की बपौती
या वोट मांगने का साधन बनकर रह जायेगा? ऐसा नहीं है कि राजनीति में धर्म के
घालमेल का फार्मूला नरेंद्र मोदी का आविष्कार हो बल्कि यह तो सालों से चल रहा है
बस फर्क इतना है कि 2014 के
चुनावों से पहले अधिकांश नेतागण जालीदार टोपी पहने रोजा इफ्तियार पार्टियों में
देखे जाते थे लेकिन अब हालात थोड़े से बदले कई राज्यों में बड़ी-बड़ी हार के बाद याद
आया कि क्रोसिया से बनी टोपी शायद लोगों को इतना नहीं लुभा रही है जितना माथे पर
सजा त्रिपुंड तिलक भा रहा है। शायद तभी राबड़ी देवी के छट पूजा के फोटो अखबारों में
छप रहे हैं। अखिलेश यादव हवन की तस्वीरें पोस्ट कर रहे हैं और लालू यादव के बेटे
राजनीतिक रैली में शंख नाद कर रहे हैं।
कहा जा रहा है कि हो सकता है कल मार्क्सवादी भी ऐलान कर दे कि वह भी
निराहार सुबह उठकर मंत्रां का जाप करते हैं या फिर बंगाल में काली या दुर्गा माता
के मंदिरों में माथे टेकते नजर आयें। दरअसल सभी राजनैतिक दल समझ गये है कि भारत
देश धर्म की राजनीति का प्रयोगशाला बन चुका है। धर्मनिरपेक्षता का चोला पुराना पड़
चुका है तो अब धर्म से जनेऊ लेकर ही क्यों ना सत्ता का सुख भोगें? भले ही आज हम मंगल और चंद्रमा पर जाने
की बात करते हैं लेकिन चुनाव में असली राजनीतिक भूमिका तो जातियां और धर्म ही
निभाते हैं।
विनय आर्य चित्र साभार गूगल
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