स्वामी
श्रद्धानन्द जी के सामने लड़ाई एक मोर्चे पर नहीं थी बल्कि लड़ाई के मोर्चे तीन थे,
एक विदेशी
शाशन, दूसरा यहाँ
फैला अन्धविश्वास जो धर्म को निरंतर पतित कर रहा था और तीसरा धर्मांतरण जिसकी फसल जातिवाद
के नाम पर काटी जा रही थी. कहते है जो लोग सिर्फ राष्ट्र के काम आते है ऐसे लोग
काल की उपज नहीं होते, अपितु काल को बनाया करते हैं. उनकी काल निर्माण
की कुशलता, उनकी राष्ट्र धर्म के प्रति निष्ठां और सेवाभाव
इसी कारण वे असाधारण महापुरुषों की पंक्ति में शामिल हो जाते है और उनका मुंशीराम
से स्वामी श्रद्धानन्द तक का सफर पूरे विश्व के लिए प्रेरणादायी बन जाता है. भारत
में लार्ड मैकाले द्वारा बनाई गयी अंग्रेजी माध्यम की पश्चिमी शिक्षा नीति के
स्थान पर राष्ट्रीय विकल्प के रूप में राष्ट्रभाषा हिन्दी के माध्यम से वैदिक
साहित्य, भारतीय दर्शन, भारतीय संस्कृति एवं साहित्य के
साथ-साथ आधुनिक विषयों की उच्च शिक्षा के अध्ययन-अध्यापन तथा अनुसंधान के गुरुकुल
कांगड़ी विश्वविद्यालय स्थापित करने वाले स्वामी श्रद्धानन्द का जीवन चरित्र मात्र
कुछ शब्दों में कैसे पिरोया जा सकता. जब काशी विश्वनाथ मंदिर के कपाट सिर्फ रीवा
की रानी के लिए खोलने और साधारण जनता के लिए बंद किए जाने व एक पादरी के व्यभिचार
का दृश्य देख मुंशीराम का धर्म से विश्वास उठ गया और वह बुरी संगत में पड़ गए.
किन्तु, स्वामी दयानंद सरस्वती के साथ बरेली में हुए सत्संग ने उन्हें जीवन
का अनमोल आनंद दिया, जिसे उन्होंने सारे संसार को वितरित किया.
स्वामी
श्रद्धानंद उन महापुरुषों में से एक थे जो अपने राष्ट्र के निर्माण लिए अपनी धन
संपदा, अपना घर, अपना परिवार और तो और स्वयं को भी इस राष्ट्र
के लिए दान कर गये. समाज सुधारक के रूप में उनके जीवन का अवलोकन करें तो पाते हैं
कि उन्होंने प्रबल विरोध के बावजूद स्त्री शिक्षा के लिए अग्रणी भूमिका निभाई.
स्वयं की बेटी अमृत कला को जब उन्होंने “ईस-ईसा
बोल, तेरा क्या लगेगा मोल”
गाते सुना तो घर-घर जाकर चंदा इकट्ठा कर गुरुकुल कांगडी विश्वविद्यालय की स्थापना
हरिद्वार में कर अपने बेटे हरीश्चंद्र और इंद्र को सबसे पहले भर्ती करवाया. स्वामी
जी का विचार था कि जिस समाज और देश में शिक्षक स्वयं चरित्रवान नहीं होते उसकी दशा
अच्छी हो ही नहीं सकती. उनका कहना था कि हमारे यहां टीचर हैं, प्रोफेसर
हैं, प्रिसिंपल हैं, उस्ताद हैं, मौलवी
हैं पर आचार्य नहीं हैं. आचार्य अर्थात् आचारवान व्यक्ति की सबसे बड़ी आवश्यकता है.
उनका कहना था
जिस राष्ट्र के शिक्षक उन्नत होंगे तो उस राष्ट्र का भविष्य स्वयं ही उन्नत होगा.
चरित्रवान व्यक्तियों के अभाव में महान से महान व धनवान से धनवान राष्ट्र भी
समाप्त हो जाते हैं. जात-पात व ऊंच-नीच के भेदभाव को मिटाकर समग्र समाज के कल्याण
के लिए उन्होंने अनेक कार्य किए. प्रबल सामाजिक विरोधों के बावजूद अपनी बेटी अमृत
कला, बेटे हरिश्चद्र व इंद्र का विवाह जात-पात के समस्त बंधनों को तोड कर
कराया. उनका विचार था कि छुआछूत को लेकर इस देश में अनेक जटिलताओं ने जन्म लिया है
तथा वैदिक वर्ण व्यवस्था के द्वारा ही इसका अंत कर अछूतोद्धार संभव है. उनका दलितों
के प्रति अटूट प्रेम व सेवा भाव अविस्मरणीय है.
गुरुकुल में एक
ब्रह्मचारी के रुग्ण होने पर जब उसने उल्टी की इच्छा जताई तब स्वामी जी द्वारा
स्वयं की हथेली में उल्टियों को लेते देख सभी हत्प्रभ रह गए. ऐसी सेवा और
सहानुभूति और कहां मिलेगी? स्वामी श्रद्धानन्द का विचार था कि
अज्ञान, स्वार्थ व प्रलोभन के कारण धर्मांतरण कर बिछुड़े स्वजनों की शुद्धि
करना देश को मजबूत करने के लिए परम आवश्यक है. इसीलिए, स्वामी
जी ने भारतीय हिंदू शुद्धि सभा की स्थापना कर दो लाख से अधिक मलकानों को शुद्ध
किया. एक बार शुद्धि सभा के प्रधान को उन्होंने पत्र लिख कर कहा कि “अब तो यही इच्छा
है कि दूसरा शरीर धारण कर शुद्धि के अधूरे काम को पूरा करूं”
वह निराले वीर
थे. लौह पुरुष सरदार बल्लभ भाई पटेल ने कहा था कि स्वामी श्रद्धानन्द की याद आते
ही 1919 का दृश्य आंखों के आगे आ जाता है. सिपाही फायर करने की तैयारी में हैं.
स्वामी जी छाती खोल कर आगे आते हैं और कहते हैं- “लो, चलाओ
गोलियां.” इस
वीरता पर कौन मुग्ध नहीं होगा? महात्मा गांधी के अनुसार वह वीर सैनिक
थे. वीर सैनिक रोग शैय्या पर नहीं, परंतु रणांगण में मरना पसंद करते हैं.
वह वीर के समान जीये तथा वीर के समान मरे. जब एक मतान्ध युवक ने उनसे चर्चा करने
के बहाने छल से गोली दाग दी थी.
देश की अनेक
समस्याओं तथा हिन्दुओं के उद्धार हेतु उनकी एक पुस्तक “हिन्दू
संगठन- मरणोन्मुख जाति का रक्षक”
आज भी हमारा मार्गदर्शन कर रही है. राजनीतिज्ञों के बारे में स्वामी जी का मत था
कि भारत को सेवकों की आवश्यकता है लीडरों की नहीं. श्री राम का कार्य इसीलिए सफल हुआ
क्योंकि उन्हें हनुमान जैसा सेवक मिला. वह हिन्दी को
राष्ट्र भाषा और देवनागरी को राष्ट्रलिपि के रूप में अपनाने के पक्षधर थे. सतधर्म
प्रचारक नामक पत्र उन दिनों उर्दू में छपता था. एक दिन अचानक ग्राहकों के पास जब
यह पत्र हिंदी में पहुंचा तो सभी दंग रह गए क्योंकि उन दिनों उर्दू का ही चलन था.
त्याग व अटूट संकल्प के धनी स्वामी श्रद्धानन्द ने 1868 में यह घोषणा की कि जब तक
गुरुकुल के लिए 30 हजार रुपए इकट्ठे नहीं हो जाते तब तक वह घर में पैर नहीं
रखेंगे. इसके बाद उन्होंने भिक्षा की झोली फैलाकर कर न सिर्फ घर-घर घूम 40 हजार
रुपये इकट्ठे किए बल्कि वहीं डेरा डाल कर अपना पूरा पुस्तकालय, प्रिंटिंग
प्रेस और जालंधर स्थित कोठी भी गुरुकुल पर न्योछावर कर दी उनकी
इस दान की शक्ति, देश और धर्म के प्रति प्रेम पर कौन मुग्ध नहीं
हो जाता? उस वीर संन्यासी का स्मरण हमारे अन्दर सदैव वीरता और बलिदान के भावों
को भरता रहे...
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