फिल्म कलाकारों को यह बात समझनी होगी कि सरहद पर न तो नकली गोली चलती और न सरहद पार से नकली आतंकी आते कि केमरा घुमाकर, एक्सन बोलो और शूटिंग खत्म. नहीं!
असली गोली हवा को चीरती हुई अन्दर आती है जरा सी चूक और किसी भारत माता के लाल
को फिर कोई रिटेक नहीं
मिलता. सबने देखा होगा उडी हमले के बाद कुछ भारतीय सिने
कलाकारों ने आतंकवाद और पाकिस्तान को लेकर अपना द्रष्टिकोण मीडिया के सामने पेश
किया जिसमें कहा कि कला को आतंकवाद से मत जोड़ों. कला सरहद, धर्म और
राजनीति से ऊपर है.
हालाँकि यही लोग आतंकवाद को भी किसी धर्म से नहीं जोड़ते है.
खैर सब कलाकार लोग महाराष्ट्र नव निर्माण पार्टी प्रमुख राज ठाकरे के उस बयान के बाद बाहर आये जिसमें राज
ठाकरे ने कहा था कि पाकिस्तानी कलाकार चौबीस घंटे ने भारत छोड़कर चले जाये.
राज ने कहा था, ‘‘हमारे
सैनिकों की पाकिस्तानी सैनिकों से कोई निजी दुश्मनी नहीं है. हमारे जवान जिन
गोलियों का सामना करते हैं, वे
फिल्मी नहीं
हैं. सलमान एक गोली लगने के बाद उठ खड़े होते हैं. मैंने इस ट्यूबलाइट को कई बार
जलते-बुझते देखा है. ‘‘मैं
भी एक कलाकार हूं और कलाकार आसमान से नहीं टपकते. पाकिस्तानी कलाकारों
ने उरी हमलों की निंदा करने से इनकार कर दिया. हमारे कलाकारों को उनके
पक्ष में क्यों बोलना चाहिए?’’
यदि
50 साल के सलमान को पड़ोसी
देश के कलाकारों से इतना ही प्यार है तो उन्हें पाकिस्तान जाकर काम
करना चाहिए. ‘‘कलाकारों
को समझना चाहिए कि
देश सबसे पहले होता है. कलाकार समाज से अलग नहीं हैं.क्या हमारे देश में प्रतिभा का अकाल है? राज ने कहा कि
उन्हें इस दलील में कोई दम नजर
नहीं आता कि पाकिस्तानी कलाकारों पर पाबंदी नहीं लगानी चाहिए क्योंकि वे आतंकवादी नहीं
हैं. ‘‘यदि
लोग अच्छे हैं तो उससे
मुझे क्या लेना-देना. मैं तो सिर्फ आतंकवादियों को देख पा रहा हूं जो हमारे लोगों को
मारने के लिए आते हैं .’’ राज
ने कहा कि फिल्म उद्योग से जुड़े
लोगों को तो बस अपनी फिल्मों के कारोबार से मतलब है. उन्होंने कहा कि यदि भारतीय सैनिक
अपने हथियार रखकर गुलाम अली की गजलें सुनने लग जाएंगे तो क्या होगा. उन्होंने
कहा, ‘‘तब
क्या होगा? क्या
सैनिक हमारे नौकर हैं ? वे हमारी हिफाजत कर रहे
हैं.
कुछ इसी अंदाज में फिल्म अभिनेता नाना पाटेकर ने भी इन कलाकारों को जवाब देते
हुए कहा कि असली हीरो सेना के जवान है हम फ़िल्मी हीरो की ओकात देश के सामने एक
खटमल जैसी है. किन्तु वहीं कलाकार ओमपुरी से शहीद सैनिको के लिए यहाँ तक कह डाला
कि लोग क्यों सेना में जाते है कोई दूसरा काम करें. क्या भारतीय गणराज्य के
खिलाफ इस तरह के विषवमन करनेवालों के खिलाफ कारवाही नहीं की जानी चाहिए? सवाल तो इनसे ये भी
पूछा जाना चाहिए कि क्या यह लोग इस देश को सिर्फ
फिल्म का अड्डा या रंगमंच का स्टेज शो समझ रहे है? इस देश का अस्तिव
फिल्मों से नहीं बना. न यहाँ सीमाएं फिल्मों और कलाकारों की वजह से सुरक्षित है
बल्कि यह देश भारतीय सेना और लोकतान्त्रिक मूल्यों की वजह से है जिसके दम पर यह
लोग आज एसी रूम में बैठकर सेना पर प्रश्नचिंह उठा रहे है
अक्सर देश की गरिमा
से जुड़े मुद्दों पर हमारे देश में संजीदगी के बजाय राजनीति ज्यादा दिखाई देती है.
दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल ने भी अब सेना से सर्जिकल स्ट्राइक की
वीडियो फुटेज मांगकर न केवल पाकिस्तान के अंतर्राष्ट्रीय बयान को मजबूत किया बल्कि
अपनी सेना एक बार को झूठा साबित करने की कोशिश की जिस तरह इशरत जहाँ और बाटला हॉउस
मुठभेड़ को फर्जी रंग देने की कोशिश की गयी थी. बहरहाल वो चर्चा लम्बी यदि देखा
जाये तो जिन मुद्दों पर कानून, सेना या प्रशासन को काम करना चाहिए वहां ये कानून
के मुहं पर हाथ रखकर खुद फैसला सुनाने लग जाते है. दादरी कांड के बाद देश के
कलाकारों, लेखकों के अन्दर एक अजीब मानवता जागी और उस मानवता की आड़ में एक अवार्ड
वापसी गेंग खड़ा हो गया. कुछ कलाकारों को भारत असुरक्षित देश लगने लगा तो कुछ को
समाज के अन्दर असहिष्णुता दिखाई देने लगी थी. कश्मीर के अन्दर या बाहर जब कहीं
सेना के जवान शहीद होते है तो कलाकारों, बुद्धिजीवी और लेखकों के इस गेंग को उनके
परिवारजनों का रुदन भले न सुनाई नही देता हो किन्तु जब कोई आतंकी सेना के जवानों
के हाथों मारा जाता है तो आतंकी के परिवार के प्रति इनके मन में अथाह संवेदना और
आँखों में आंसू उमड़ आते है. अब एक बार फिर पुरस्कार वापसी ब्रिगेड के लेखकों- कलाकारों और उनके पैरोकारों ने कश्मीर के मसले पर एक अपील जारी की है. उड़ी में सेना के कैंप पर हमले
के बाद छियालिस लेखकों, पत्रकारों, कलाकारों आदि के नाम से एक अवार्ड लौटने वाले गेंग के नेता अशोक वाजपेयी ने
एक अपील जारी की है. इस अपील में अशोक वाजपेयी ने दावा किया है कि
अलग-अलग भाषा, क्षेत्र और धर्म के सृजनशील समुदाय के लोग कश्मीर भाई-बहनों के दुख से दुखी हैं. अपने अपील में इन लेखकों-कलाकारों ने कहा है कि कश्मीर में
जो हो रहा है वो दुर्भाग्यपूर्ण, अन्यायसंगत और अनावश्यक है. अब शुरुआती पंक्तियों को जोड़कर देखें तो यह लगता है कि अपीलकर्ता कश्मीर
भाई-बहनों और बच्चों की पीड़ा को
दुर्भाग्यपूर्ण, अन्नायसंगत और अनावश्यक बताकर अपने सविंधान और सेना
पर प्रश्न उठा रहे हैं.
क्या सरकार इनसे साफ –साफ नहीं
पूछ सकती कि यह लोग बुरहान वानी को
आतंकवादी मानते हैं या नहीं. इस मसले पर इनकी अपील क्यों खामोश
रहती हैं? दरअसल अपीलकर्ता लेखकों
की सूची को देखें तो ये साफ नजर आता है कि इसमें से कई लोग असहिष्णुता के
मुद्दे पर बेवजह का बखेड़ा करनेवाले रहे हैं. उस वक्त उनके आंदोलन से पूरी
दुनिया में एक गलत संदेश गया था और देश की बदनामी भी हुई थी. उन्हें ये बात
समझनी चाहिए कि कश्मीर का मसला बेहद संजीदा है और इस तरह की अपील से देश को
बदनाम करनेवालों को बल मिलता है. समझना तो उन्हें ये भी चाहिए कि काठ की
हांडी बार-बार नहीं चढ़ती है. क्या इन मासूम लेखकों को भारतीय
संविधान की जानकारी नहीं है जहां राष्ट्र के खिलाफ साजिश और जंग को सबसे बड़ा
अपराध माना गया है और सरकार को इन स्थितियों से निबटने के लिए असीम ताकत दी
गई है. यदि सीमापार स्थित किसी स्थान पर देश के खिलाफ षड्यंत्र रच जा रहा हो तो
सेना सर्जिकल स्ट्राइक कर उनसे निपट सकती है किन्तु जब देश के अन्दर ही यहाँ की
एकता, अखंडता और संघीय ढांचे को कोई चुनोती दे तो क्या यहाँ संवेधानिक कारवाही
नहीं बनती? Rajeev choudhary
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