सीरिया के विस्थापितों के लिए दया सवेंदना दिखाना यूरोपीय
समुदाय को कहीं महंगा तो नहीं पड़ रहा है? इतना महंगा की जिसकी कीमत मासूम नागरिकों
की जान से चुकानी पड़ रही हो! फ्रांस के बाद अब यूरोप देश बेल्जियम की राजधानी
ब्रसेल्स में हुए धमाके की गूंज में एक बार फिर मजहबी आतंक के नाम पर हुए खुनी खेल
पर प्रश्नचिन्ह खड़े होना लाजिमी बात है| बेल्जियम की राजधानी ब्रुसेल्स के एयरपोर्ट पर को दो जबर्दस्त धमाके हुए थे। जानकारी के मुताबिक धमाकों में 35 लोगों की मौत हो गई, जबकि अन्य 55 घायल हुए हैं। बेलगा एजेंसी अनुसार वहां हुई गोलीबारी में एक व्यक्ति की मौत और धमाके
से पहले एक व्यक्ति अरबी भाषा में चिल्लाया था। लोग इसे भले ही यूरोप पर आतंकी
हमला कह रहे हो किन्तु हम इसे उस दया सवेदना पर हमला कह सकतें है जो यूरोपीय
समुदाय ने एक नन्हे बच्चे ऐलन कुर्दी की लाश समुंद्र तट देखने के बाद सीरियाई
शरणार्थीयों पर दिखाई थी|
जब तक विश्व समुदाय यह
सोचता है कि आतंकवाद से कैसे निपटा जाये आतंकवादी नये ठिकानों पर हमला कर अपनी
मजहबी मंशा जगजाहिर कर देते है| मतलब यदि आतंक की लड़ाई डाल-डाल है तो आतंकियों के
होसले व् मजहबी जूनून पात-पात हर एक आतंकी
घटना के बाद अमेरिका की अगुवाई में आतंक से निपटने के संकल्प लिए जाते है| विश्व
समुदाय के बड़े नेता आतंकी हमलों की निंदा कर देते है| बेल्जियम छोटा देश है घाव
खाकर घरेलू मोर्चे पर धरपकड कर सकता है बस बात खत्म| दो साल से अधिक समय बीत चूका है बेगुनाह निर्दोष
लोग मारे जा रहे है, सिगरेट के पेकिटों के बदले योन शोषण के लिए यजीदी समुदाय की
बच्चियां बेचीं जा रही है| करोड़ों लोग बेघर होकर ठोकर खा रहे है| किन्तु समूचे
विश्व के शीर्ष नेता यह तय नहीं कर पाए है कि मानवता को निगलने वाले काले सांप
इस्लामिक स्टेट का फन कुचलना ज्यादा जरूरी है, या सीरिया के राष्ट्रपति को अपदस्थ
करना? पेरिस में हुए हमले जिसमें सेकड़ो लोग मारे गये थे हमले के मास्टरमाइंड माने
जा रहे फ्रांसीसी मूल के बेल्जियम नागरिक सलाह अब्देसलाम की गिरफ्तारी के चार दिन
बाद जिस तरह बेल्जियम की राजधानी बम धमाकों से दहल उठा उसे देखकर लगता है| यूरोप
अभी आतंक से लड़ने को पूर्णरूप से तैयार नहीं है|
भारत
के मेघालय
राज्य से कुछ ही बड़े बेलेजियम में लगभग 350 मस्जिदें हैं, जिनमें से 80 अकेले ब्रसेल्स में हैं। उनके इमाम अधिकतर
तुर्की या अरब देशों की सरकारों द्वारा प्रायोजित होते हैं। वे अपने प्रवचनों में क्या उपदेश
देते हैं, कुरान की आयतों की
क्या व्याख्या
करते हैं, इसे देश का अधिकारी
वर्ग नहीं जानता। संदेह यही है कि मुस्लिम युवा घर के बाहर धार्मिक
कट्टरता का पहला पाठ मस्जिदों में ही पढ़ते हैं। दूसरा यदि आज आतंक के खिलाफ लड़ाई लड़ने वाले देशो को देखे तो एक मजाक सा लगता है| पाकिस्तान और सउदीअरब आतंक से लड़ने के लिए अमेरिकी मदद लेते है जबकि सब जानते है कि आतंक का असली पोषण इन्ही देशो के द्वारा होता है|
तीसरा एक कड़वे सच को लोग
खुलकर स्वीकार करने से हिचकते हैं कि आतंकवाद के विरुद्ध
विश्वव्यापी अभियान में भी गोरे-काले का फ़र्क है। पश्चिम अफ्रीका में बोको हराम
ने 17 हज़ार
लोगों की हत्या की, यह
अमेरिका और उसके मित्रों के लिए आतंक का विषय नहीं बना। ऐसा क्यों है कि न्यूयार्क
में 9/11 से लेकर से पेरिस के 13/11
तक आतंकी कार्रवाई के विरुद्ध दुनिया एकजुट होकर
निंदा करती है, और
यदि ऐसा ही नृशंस हमला 2008 ताज होटल मुंबई लोकल ट्रेन में या 2016 में पठानकोट
में होता तो उसे भारत-पाकिस्तान के बीच आपसी
तनातनी की नजऱ से देखा जाता है। अमेरिका को आतंकवाद के सफाये की इतनी ही फिक्र है, तो वह साझा ऑपरेशन करके लादेन की तरह दाऊद
इब्राहिम को मार गिराने में भारत की मदद क्यों नहीं करता? इस समय पूरी दुनिया आतंक को लेकर सकते
में है, अफसोस कि रूस के इस्लामिक स्टेट के खात्मे के अभियान को बशर अल असद को
बचाने की कार्रवाई घोषित कर दिया जाता है। सिर्फ इसलिए कि आतंक के सफाये का श्रेय
पुतिन न ले लें।
आज अमेरिकी जि़द के कारण लाखों लोग उजड़ रहे है हज़ारों की सामूहिक कब्र बन रही है| मानवता रो रही
है किन्तु अमेरिकी लोग यूरोप में भी खून से सनी जमीन को सवेदना की आड़ में लीपापोती
कर रहे है| अब यूरोपीय समुदाय को खुद समझना होगा हम यह नहीं कहते कि धर्म विशेष के
लोगों को नफरत की नजर से देखे किन्तु भेडियों पर यदि भेड़े दया दिखाएँ तो क्या
हासिल होगा सब जानते है? लेखक राजीव चौधरी
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