महर्षि दयानन्द के अनुसार
मूर्ति-पूजा करना वैसा ही है
जैसे एक चक्रवर्ती राजा को पूरे राज्य का राजा न मानकर एक छोटी सी झोपड़ी का स्वामी माना जाना
सनातन धर्म को मानने वाले हर रोज सुबह-शाम किसी न
किसी देवी-देवता की पूजा करते हैं.
हिंदू धर्म को मानने वाला किसी न किसी मूर्ति रूपी भगवान का उपासक है. किसी की राम में, किसी की कृष्ण में तो किसी की शंकर में आस्था है. इसके विपरीत महर्षि
दयानंद द्वारा स्थापित आर्य समाज का मानना है कि मूर्ति पूजा नहीं करनी चाहिए या कह सकते
हैं कि वह मूर्ति पूजा के खिलाफ हैं. आर्य समाज के
अनुसार, मूर्ति पूजा करने वाला व्यक्ति अज्ञानी होता है.
आर्य समाज के ईश्वरीय ज्ञान वेद में मूर्ति पूजा को अमान्य
कहा गया है. इसके पीछे कारण बताया जाता है कि ईश्वर
का कोई आकार नहीं है और ना ही वो किसी एक जगह व्याप्त है. आर्य समाज के अनुसार ईश्वर दुनिया के
कण-कण में व्याप्त है. इसलिए सृष्टि के कण-कण में
व्याप्त ईश्वर को केवल एक मूर्ति में सीमित करना ईश्वर के गुण, कर्म और स्वभाव के खिलाफ है. ईश्वर हमारे हृदय में स्थित आत्मा में वास करते हैं.
इसलिए भगवान की पूजा, प्रार्थना एवं उपासना के लिए मूर्ति अथवा मंदिर की कोई
जरूरत नहीं है.
किसने की मूर्ति पूजा की शुरुआत
ऐसा माना जाता है कि भारत में मूर्ति पूजा की शुरुआत लगभग
तीन हजार साल पहले जैन धर्म में हुई थी. जैन धर्म के
समर्थकों ने अपने गुरुओं की मूर्ति पूजा कर इसकी शुरुआत की थी. जबकि उस समय तक हिंदू धर्म के
शंकराचार्य ने भी मूर्ति पूजा का विरोध किया था, लेकिन शंकराचार्य की मृत्यु के बाद उनके समर्थकों ने उनकी ही पूजा शुरू कर
दी, जिसके बाद हिंदू धर्म में भी
मूर्ति पूजा शुरू हो गई.
महर्षि दयानंद के अनुसार मूर्ति-पूजा करना वैसा ही है जैसे
एक चक्रवर्ती राजा को पूरे राज्य
का राजा न मानकर एक छोटी सी झोपड़ी का स्वामी माना जाना. इसी तरह भगवान को भी संपूर्ण विश्व का
स्वामी न मानकर सिर्फ उसी मंदिर का स्वामी माना जाना जिस मंदिर में उस भगवान की मूर्ति स्थापित
है. इनके अनुसार चारों वेदों के 20589 के मंत्रो में से ऐसा कोई मंत्र
नहीं है, जिसमें मूर्ति पूजा का जिक्र या समर्थन किया गया
हो. जबकि इसके उलटा वेदों में वर्णित किया गया है कि भगवान की कोई मूर्ति नहीं हो सकती.
न तस्य प्रतिमाsअस्ति यस्य नाम महद्यस: – (यजुर्वेद अध्याय 32 , मंत्र 3)
मूर्ति पूजा के विरोध पीछे क्या है आर्य समाज का तर्क?
मूर्ति पूजा के विरोध में खड़े लोगों में सबसे पहले नाम आता
है 'आर्य समाज' का. जिसकी स्थापना महर्षि दयानंद
सरस्वती द्वारा अप्रैल 1875 में मुंबई में की गई थी. इस समाज के नियमों में ही
है कि आप मूर्ति के उपासक नहीं हो सकते. गुरुकुल पौंधा देहरादून में धर्म विषय के आचार्य
शिवदेव शास्त्री एक कहानी सुनाते हुए कहते हैं कि जब दयानंद सरस्वती अपने
बाल्यकाल अवस्था में थे, और उनका नाम मूलशंकर हुआ करता था. वो
शिव के बहुत बड़े भक्त हुआ करते थे. वो प्रत्येक सोमवार और शिवरात्रि को व्रत रखा करते थे.
इसी तरह एक बार शिवरात्रि के त्योहार पर रात को पूजा और
भजन करने के बाद मूलशंकर अन्य सभी शिव भक्तों की तरह वहीं मंदिर में रुक गए. आधी
रात के बाद जब बालक मूलशंकर की नींद खुली तो
उन्होंने देखा कि शिवलिंग पर चढ़ाए हुए प्रसाद पर चूहे चढ़े हुए हैं. वो बताते है कि दयानंद
सरस्वती के दिमाग में उसी समय यह
बात खटकी की जो मूर्ति में समाया हुआ भगवान एक छोटे से चूहे से अपनी रक्षा नहीं कर सकता तो पूरे
विश्व की क्या रक्षा करेगा?
इसी आधार पर आर्य समाज मूर्ति पूजा का पुरजोर विरोध करता
है. बकौल, शिवदेव शास्त्री, महर्षि दयानंद सरस्वती के अनुसार
मूर्ति-पूजा कोई सीढ़ी या माध्यम नहीं बल्कि एक गहरी खाई है. जिसमें गिरकर मनुष्य
चकनाचूर हो जाता है और एक बार
इस खाई में गिर जाता है वो इस खाई से आसानी से नहीं निकल सकता है.
सुधांशु गौर
No comments:
Post a Comment