(इतिहास का एक
लुप्त पृष्ठ)
अविभाजित भारत
में पंजाब का क्षेत्र विशेष रूप से लाहौर आर्यसमाज की गतिविधियों का प्रमुख केंद्र
तो था। आर्यसमाज का प्रचार पंजाब क्षेत्र के साथ साथ सिन्ध क्षेत्र में भी खूब
फैला। जिस प्रकार पंजाब की मिटटी
विधर्मियों के आक्रमण से पीछे एक हज़ार वर्षों से लहूलुहान थी उसी प्रकार सिंध का
क्षेत्र भी इस्लामिक आक्रांताओं के अत्याचार से अछुता नहीं था। आर्यसमाज का प्रचार
सिंध में किसी पुराने रोग की अचूक औषधि जैसा था। सिंध की धरती पर सदैव अजेय रहने
वाले हिन्दुओं की पहली हार मुहम्मद बिन कासिम से राजा दाहिर को मिली। अपने पिता की हार और अपने राज्य की तबाही का
बदला राजा दाहिर की वीर बेटियों ने उसी के बादशाह से अपने ही सेनापति को मरवा कर
लिया था। राजा दाहिर का पूरा परिवार अपनी मातृभूमि की रक्षा के लिए बलिदान हो
गया। सिंध का अंतिम शासक मीर था। मीर में
अनेक दोष थे। मीर को पता चला कि उसके हिन्दू दीवान गिदुमल की बेटी बहुत खुबसूरत है
तो उसने गुदुमल के घर पर उसकी बेटी को लेने की लिए डोलियाँ भेज दी। बेटी खाना खाने बैठ रही थी तो उसके पिता ने
बताया की यह डोलियाँ मीर ने तुम्हें अपने हरम में बुलाने के लिए भेजी है। तुम्हें
अभी निर्णय करना है। यदि तुम तैयार हो तो
जाओ। पिता के शब्दों में निराशा और गुस्सा स्पष्ट झलक रहा था। बेटी ने फौरन अपना निर्णय सुना दिया “आप
अभी तलवार लेकर मेरा सर काट दीजिये, जाने का प्रश्न ही नहीं उठता।” पिता
को ऐसा उत्तर मिलने का पूरा विश्वास था। उन्होंने अपनी बेटी को बचपन से धर्म और
स्वाभिमान के संस्कार दिए थे। बिना किसी संकोच के पिता ने तलवार उठाई। भूखी बेटी ने सर झुकाया और बाप की तलवार ने काम
कर दिया। वह पिता जिसने लाड़ प्यार से
अपनी बेटी को जवान किया था एक क्षण के लिए भी न रुका। परिणाम यह हुआ की मीरों ने
दीवान गिदुमल को बर्बाद कर दिया पर वे और उनका परिवार इतिहास में अपने धर्म और
स्वाभिमान के रक्षा के लिए एक बार फिर राजा दाहिर के परिवार के समान अमर हो गया।
मुसलमानों के
बाद अंग्रेज सिंध में आये। इस्लामिक तलवार का स्थान कब्र परस्ती,पीर
पूजा और सूफी विचारधारा ने ले लिया। कई हिन्दू पीरों के मुरीद बन गए जिनकी हिन्दू
औरतें पीरों पर जाकर तावीज़ आदि ले आती थी। हिन्दुओं के अन्धविश्वास में वृद्धि ही
हुई। हिन्दुओं का मुसलमान बनना अब भी पहले
की तरह ही जारी था। कहीं से किसी मुसलमान के हिन्दू बनने की खबर नहीं आती थी। 1878
में एक हिन्दू युवक ठारुमल मखीजाणि एक मुसलमान लड़की के चक्कर में फँसकर मुसलमान बन
गया। जबकि वह पहले से ही विवाहित और एक बच्चे का बाप भी था। ये मुस्लिम लड़कियां
आमतौर पर नाचने वाली होती थी जो धनी हिन्दू युवकों को अपना शिकार बनाती थी। कुछ वर्षों के बाद उसकी मुसलमान बीवी का देहांत
हो गया। ठारु शेख को अब अपने पुराने परिवार की याद आई। उसने वापिस हिन्दू बनना चाहा पर किसी ने उसकी न
सुनी। अंत में बाबा गुरुपति साहिब ने
शुद्ध करके वापिस उसका नाम ठारुमल रख दिया। परन्तु दीवान शौकिराम ने उसका कड़ा
विरोध किया। इस कारण हिन्दू लोगों में इसकी बड़ी प्रतिक्रिया हुई जिसका हिन्दू
युवकों पर विपरीत प्रभाव पड़ा और कई युवक मुस्लमान बनने को तैयार हो गए। ऐसा ही एक
मामला 1891 में प्रकाश में आया। दीवान सूरजमल दीवान शौकिराम का सौतेला भाई का
था। दीवान सूरजमल और उसका बेटा दीवान मेवाराम भी मुसलमान बन गया था। उसने अपनी
पत्नी और दोनों बेटियों को मुसलमान बनने का आग्रह किया। उन्होंने मना कर दिया, जिसके
लिए वह कोर्ट में चला गया। आखिर वह केस
हार गया। दीवान हीरानंद ने उन दोनों
हिन्दू लड़कियों का रातोंरात हिन्दू युवकों से विवाह कर दिया। दीवान मेलाराम उनके पतियों के खिलाफ भी कोर्ट
में गया पर हार गया। सिंध का हैदराबाद नगर जिसका असली नाम नारायण कोट था में अनेक
हिन्दू युवक मुसलमान बनते जा रहे थे पर हिन्दू जाति कबूतर के समान आंख बंद कर सो
रही थी। ऐसी विकट परिस्थितियों में आर्यसमाज की क्रांतिकारी विचारधारा से अनेक
युवक धर्मरक्षा के लिए प्रेरित हुए। दीवान
दयाराम गिदूमल, दीवान नवलराय और दीवान गुलाब सिंह ने पंजाब
आर्य प्रतिनिधि सभा को तार भेज कर सूचित किया की हिन्दू बड़ी संख्या में मुसलमान
बनते जा रहे है। उन्हें कैसे भी रोको। कोई
उपदेशक या प्रचारक तत्काल भेजों। स्वामी
श्रद्धानन्द (तब महात्मा मुंशीराम) से विचार कर आर्य मुसाफिर पंडित लेखराम और
पंडित पूर्णानंद ने सिंध में आकर विधर्मियों के विरुद्ध मोर्चा संभाल लिया। दोनों महान आत्माओं ने न दिन देखा न रात। उन्हें जिस भी हिन्दू का पता चलता कि वह
मुसलमान बनने जा रहा है, तो वे झट उसके पास पहुँच जाते और उसे
समझा बुझा कर वापिस से हिन्दू बना लेते।
हालत इतने नाजुक थे की आचार्य कृपलानी का भाई भी मुसलमान बन गया था। जिसे
शुद्ध करके वापिस हिन्दू बनाया गया। दोनों
विद्वानों ने अपने प्रयासों से हिन्दू जनता में आत्म विश्वास पैदा कर दिया था। इन
दोनों ने विधर्मियों के किले के किले तोड़ डाले। 1893 तक आते
आते हिन्दू समाज में वापिस जान में जान आ गई और सिंध के अनेक शहरों में आर्यसमाज
स्थापित हो गए।
सिंध में
आर्यसमाज के प्रचार से अनेक व्यक्ति आर्य बने।
उनके त्यागी-तपस्वी जीवन आज भी हमें अध्यात्म का प्रेरित कर हमारा
मार्गदर्शन करते रहते हैं। उनमें से एक महान आत्मा पंडित जीवन लाल जी के जीवन
चरित्र का यहाँ वर्णन किया जा रहा है। आप बचपन से ही अध्यात्मिक विचारों के
थे। इसलिए बड़े होने पर नौकरी छोड़कर
कंडड़ी के सूफी फकीर मुहम्मद हसन के पहले शिष्य फिर गद्दी के मालिक और सूफी महंत
बन गए। उनके शिष्य हजारों की संख्या में
थे। सूफी मत में मांस और भांग का अत्यंत सेवन होता था। एक बार वे सूफी मत का
प्रचार करते करते एक रेलवे स्टेशन पर पधारे।
उस रेलवे स्टेशन के मास्टर थे हाकिम राय आर्य। आर्य जी ने सूफी महंत जी को
भोजन कराया और ज्ञान चर्चा भी की। जब वे
रेल में जाने लगे तो उन्हें एक पुस्तक कपड़े में लपेट कर दी और उसे पढ़ने का वचन
उनसे ले लिया। पंडित जी ने जब पुस्तक खोल कर देखी तो उन्हें बड़ा क्रोध आया
क्यूंकि उस पुस्तक का नाम था “सत्यार्थ प्रकाश” ।
परन्तु उनके मन में नित्य विचारों की नई नई लहरें आती रही , कभी मन
आया की उसे फ़ेंक दे,कभी मन आया की मैं ऐसी पुस्तक को क्यों देखू
जिसकी हिन्दूयों, ईसाईयों और मुसलमानों के प्राय: सभी नेता निंदा
करते हैं। फिर मन में आया की मैं इतना बड़ा फकीर हूँ। मेरे पूरे जीवन के परिश्रम
को भला एक पुस्तक कैसे तोड़ सकती है? अंत में उन्होंने निश्चय किया की
सत्यार्थ प्रकाश को पढ़ कर उसकी परीक्षा करनी होगी। इतने सारे लोग इस पुस्तक के
सम्बन्ध में जो राय देते है। वह कहाँ तक सत्य है? उन्होंने
पुस्तक खोल कर उसे पढ़ना शुरू किया। सत्यार्थ प्रकाश के प्रथम समुल्लास में
परमात्मा के सच्चे नामों और दुसरे नामों के गुणों के अनुसार व्याख्या पढ़कर और
ईश्वर की सच्ची शक्ति और सत्य स्वरुप को ज्ञात कर उन्हें सच्चे आनंद का आभास होने
लगा। उन्होंने सोचा कि जो ग्रन्थ सर्वप्रथम
ईश्वर के सच्चे स्वरुप को स्वीकार करता है। वह नास्तिक कैसे हो सकता है? जो
ईश्वर को इतना महान बता सकता है। वह
हिन्दू विरोधी कैसे हो सकता है? वे समझ गए की यह षड़यंत्र केवल और केवल
विधर्मियों द्वारा स्वामी दयानंद को बदनाम करने की व्यर्थ कोशिश है। उस दिन से उनके विचार स्वामी दयानंद के लिए बिलकुल
बदल गए। उसी काल में उनके एक शिष्य ने उन्हें बिना बताये सिंध में ईश्वर का अवतार
घोषित कर दिया और इस विषय में इंग्लैंड की रानी और भारत के वाइसरॉय तक को पत्र लिख
दिया जिससे पूरे देश में आन्दोलन छिड़ गया।
सत्यार्थ प्रकाश पड़ने से उनके मन के विचारों में क्रांति का सूत्रपात हो
चूका था। जिससे उनकी आत्मा ने इस अन्धविश्वास को छोड़ने और सत्य को ग्रहण करने का
निश्चय किया। वे सूफी मत और इस्लाम का
त्याग कर आर्यसमाज में शामिल हो गए। पंडित
जीवनलाल जी का जीवन परिवर्तन हमे स्वामी दयानंद के अनमोल सन्देश की मनुष्य को सत्य
के ग्रहण और असत्य के त्याग के लिए सदा तत्पर रहना चाहिए का दर्शन कराता है।
सत्यार्थ प्रकाश पढ़कर जाने कितनों का इसी प्रकार से जीवन परिवर्तन हुआ होगा।
सिंध का
प्रसिद्द शास्त्रार्थ
मीरों के समय
में सिंध के संजोगी परिवार मुसलमान बन गए थे।
वे केवल नाम से मुसलमान थे। जबकि उनके रीती रिवाज़ आज भी हिन्दुओं के समान
ही थे। क़ाज़ी आरफ गाँव में एक संजोगी मुसलमान परिवार था। जिसके मुखिया का नाम था
पर्यल। आर्यसमाज के प्रचार के कारण पर्यल
का हिन्दुओं से फिर से सम्बन्ध स्थापित
हुआ। उसने वापिस हिन्दू बनने से पहले एक
शर्त लगाई। थोड़ी मुहब्बत में आर्यसमाज के वार्षिक उत्सव पर पंडितों और मौलवियों के
बीच में शास्त्रार्थ रखा जाये। अगर
आर्यसमाजी जीत गये तो उनका परिवार हिन्दू बन जायेगा और अगर मुसलमान जीते तो वे
मुसलमान ही रहेगे। 1934 में आर्यसमाज के उत्सव में शास्त्रार्थ केसरी पंडित
रामचंद्र देहलवी जी, महात्मा आनंद स्वामी जी (तब खुशहालचंद जी),
प्राध्यापक ताराचंद गाजरा जी, प्रो
हासानंद जी, पंडित उदयभानु जी, पंडित
धर्मभिक्षु जी आदि पधारे। शास्त्रार्थ का विषय था ‘इस्लाम
खुदा का मज़हब है क्या?’
जैसा की जग
जाहिर है मुसलमान लोग अपना पक्ष सिद्ध न कर सके और वैदिक धर्म की जीत हुई। हजारों की संख्या में संजोगी वैदिक धर्म में
शामिल हो गए। हवन आदि करके उन्हें
यज्ञोपवित पहनाया गया। पर्यल का नाम बदल
कर प्रेमचंद रखा गया। प्रेमचंद के घर पहुँचने रात को मुसलामानों ने उनके घर पर
हमला बोल दिया पर दंगे की आशंका पहले से ही थी इसलिए पहले से ही तैयार हिन्दुओं ने
गुंडों को पकड़ कर पुलिस के हवाले कर दिया और मामला शांत पड़ गया।
सिंध में
हिन्दुओं पर अत्याचार
सिंध में एक ऐसा
समय भी था की जब भी कोई मुसलमान अगर हिन्दू कन्या या महिला को भगाकर ले जाता था तो
कोई मुँह भी न खोलता था। हिन्दू समझते थे
की कानून का सहारा लेना बदनामी मोल लेने के बराबर है। इसलिए भगवान की इच्छा समझकर
चुप रहते थे। आर्यसमाज ने पहली बार हिन्दुओं को इस विकट परिस्थिति का सामना करने
की शक्ति दी। लरकाना जिले में अपर सिंध में एक पीर का गाँव था। एक अमीर हिन्दू
जमींदार भी उस गाँव में रहता था। उसकी दो
जवान लड़कियां थी। एक दिन वे पड़ोसी के घर
पर गयी तो वापिस नहीं आई। पूरे गाँव में
तलाशा गया पर कोई सुराग नहीं मिला। अंत
में मजबूर होकर जमींदार ने पुलिस में शिकायत दर्ज करवा दी। पूरे सिंध में शोर मच गया कि अगर एक अमीर
जमींदार की बेटियाँ सुरक्षित नहीं हैं, तो एक गरीब
हिन्दू की बेटी का क्या होगा? लगभग एक महिना बीत गया पर कोई सुराग
नहीं मिला। पुलिस भी भाग दोड़ कर ठंडी पड़
गई। एक दिन लरकाना स्टेशन पर तीन जवान
पहुँचे। उनके हाथ में एक पोटली थी। शायद
कुछ कपड़े थे। वहां से बस पकड़ कर वे
अम्रोट शरीफ गाँव में पहुँचे। हर गुरूवार
को अम्रोट शरीफ गाँव में एक मेला लगता था।
जिसमे कई सौदागर समान का लेन देन करने आते थे। ये तीनों नौजवान भी
मुसलमानों जैसे कपड़े पहन कर उस मेले में पहुँच गए। शाम को मस्जिद में नमाज अदा कर मौलवियों के साथ
खाने पर बैठ गए। खाने के दौरान आपसी
बातचीत में उन्हें यह भी पता लगा की इस मस्जिद में तबलीगी का काम गुप्त रूप से
होता है। एक हिन्दू जमींदार की दो लड़कियाँ
गुप्त रूप से भगा कर लाई गई है। जिनकी कल ही तबलीगी अर्थात धर्म परिवर्तन होना
है। कुछ समय के बाद ये जवान चुपके से वहाँ
से खिसक गए और श्री गोविन्दराम जी को जाकर सूचना दी। यह काम कितना खतरनाक था। आप
इसकी कल्पना कर सकते है। अगर भेद खुल जाता
तो तीनों के टुकड़े हो जाते। गोविन्दराम जी
को श्री ताराचंद गाजरा जी ने सी आई डी के कार्य पर लगा रखा था। उनके घर से वे तीनों डीसपी के घर पर पहुँच गए
और उन्हें सूचना दी। लड़कियों की जानकारी देने वालों पर 5000 का ईनाम
था। डीसपी ने उन्हें हार्दिक धन्यवाद दिया और पुलिस अटाले के साथ मस्जिद पर धावा
बोल दिया। वहाँ से दोनों हिन्दू लड़कियों
मीरा और मोहिनी को बरामद कर लिया गया। मौलवियों के साथ तीन बाहर के चौकीदारों को
भी गिरफ्तार कर लिया गया। लड़कियों ने
बयान दिया कि जब वे पड़ोस के घर से वापिस आ रही थी तो उन्हें चादर डाल कर अगवा कर
मस्जिद लाकर बंद कर दिया गया था। बाद में
हमें मुसलमान बनने का लालच दिया गया था। उन्होंने हमें यह कहकर भी धमकाया कि यहाँ
से तुम कहीं पर भी नहीं भाग सकती और हिन्दू अब तुम्हे वापिस नहीं लेंगे। क्यूंकि
अब तुम पतित हो चुकी हो। ध के समाचारों
में यह मामला छाया रहा। अनेक मुस्लिम
नेताओं को उन मौलवियों को मुक्त करवाने के लिए तार भेजे गए पर अंत में उन्हें सजा
मिली। यह तीन आर्य कार्यकर्ता जिन्होंने
अपनी जान की बाज़ी लगाकर हिन्दू लड़कियों की रक्षा करी थी का नाम था श्री निहाल
चंद आर्य जी, श्री चमनदास आर्य जी और श्री लेखराज जी। स्पष्ट है कि स्वामी दयानंद ने आर्यसमाज न
बनाया होता तो ऐसे शूरवीर पैदा ही नहीं
होते। सोचिये सिंध में हिन्दुओं की क्या दुर्दशा होती?
कुरान के पन्ने
जलाने से दंगा होते होते बचा
श्री भीमसेन
आर्य के बाल्यकाल की एक घटना का मैं यहाँ वर्णन करना चाहूँगा जिसकी बुनियाद
अन्धविश्वास पर टिकी थी। जब वे छोटे थे तो
मस्जिद में कुछ मुसलमान लड़कों के साथ खेलते रहते थे। उन्होंने सुन रखा था कि कुरान शरीफ के पन्नों
में अगर आग लगा दी जाये तो या तो कुरान शरीफ हवा में जादू से उड़ जाता है अथवा आग
ठंडी हो जाती है। कुरान शरीफ कभी जल नहीं
सकती। जिस मस्जिद में वे खेलते थे उस मस्जिद का दरवाजा नहीं था और एक पुराना कुरान
जिसके पन्ने अलग हो चुके थे और जो प्रयोग में नहीं था वहाँ मस्जिद में रखा
था। बाल्यकाल की नासमझी और अंधविश्वास के
चलते उन्होंने कुरान के कुछ पन्नों में आग लगा दी। शाम को जब मस्जिद में बांग देने वाला आया तो
उसने आर्यसमाजियों द्वारा कुरान की अवहेलना कह कर चारों तरफ शोर मचा दिया। मौलवी
खास तौर पर भड़क उठे। पुलिस में रिपोर्ट लिखवाई गई। मामला तहसीलदार तक गया। तहसीलदार अक्लमंद था। उसने समझाया की बच्चे
वहाँ खेलते थे और मस्जिद का कोई दरवाजा नहीं था। बांग देने वाला भी मानता है कि
कुरान के पन्ने अलग अलग थे और अक्सर उड़ जाते थे।
फिर तो यह बांग देने वाले की जिम्मेदारी है कि वह मस्जिद पर दरवाजा लगवाता
और कुरान को सुरक्षित ढंग से रखता। यदि वह
ऐसा करता तो यह घटना नहीं घटती। तब कहीं जाकर मामला शांत हुआ नहीं तो हिन्दू
मुस्लिम दंगे की एक और नींव पड़ जाती।
सूअर द्वारा
हिंदुयों की रक्षा
शिकारपुर और
जैकोबाबाद में अक्सर देखा जाता था कि कई मुस्लिम जमींदार हिन्दू हरिजनों की
बस्तियों जाते और उन्हें इतना कर्ज दे देते कि वे जीवन भर उसे न चुका सके। कर्ज न
चूका पाने पर उन्हें मुसलमान बना कर ,अपने किसी नौकर से उनकी बहन या बेटी का
निकाह भी करवा देते थे। आर्यसमाज के
कार्यकर्तायों श्री भीमसेन आर्य जी और श्री जीवतराम को अंत में एक उपाय सुझा। मुसलमान लोग उस बस्ती में जाने से परहेज रखते
थे जिनमें सूअर पाले जाते थे। आर्य कार्यकर्ताओं ने घोषणा कर दी कि जो भी हरिजन
अपने अपने घर को साफ रखेगा उसे एक एक सूअर ईनाम में दिया जायेगा। ईनाम के लालच में
हरिजनों ने अपने अपने घर साफ़ कर लिए और उसके बदले में उन्हें एक एक सूअर दिया गया।
एक एक सुअरी 20-20 बच्चों को जन्म देती है। जिससे पूरी बस्ती में कुछ ही समय में सूअर ही
सूअर नजर आने लगे। सूअरों के दर्शन को
नापाक मानने वाले मौलवी लोगों ने हरिजनों की बस्तियों में आना छोड़ दिया। इससे
अनेक हिन्दू हरिजनों का न केवल धर्म परिवर्तन होने से बच गया अपितु अनेक अबलाओं भी धर्म रक्षा हो गयी।
शुद्धिवाला
प्रचारक -श्री खेम चन्द मुनोमल शुद्धिवाला
शुद्धि वाला के
नाम से प्रसिद्द श्री खेमचन्द जी ने सिंध में जबरदस्ती हिन्दुओं को मुसलमान बनाने
के प्रयासों को शुद्धि का चक्र चला कर उत्तर दिया। कोई उन्हें सिंध का सावरकर की उपाधि देता था,
कोई उन्हें सिंध के श्रद्धानन्द की उपाधि देता था। धीरे धीरे वे
शुद्धिवाला के नाम से प्रसिद्द हो गए। उनके जीवन से अनेक विवरण हमे आज भी शुद्धि
की प्रेरणा देते है। हरपाल और धीरज मुसलमान हो गए थे। उनके प्रयत्न से फिर से शुद्ध हो गए। लीना नामक एक ईसाई लड़की को शुद्ध करके उनका
विवाह हरिश्चंद से करवाया। नवाबशाह के एक
हिन्दू जमींदार की लड़की को मुसलमान भागकर ले गए। उसको वापिस लाकर शुद्ध करके एक
हिन्दू नौजवान से उसकी शादी करवा दी।
हैदराबाद
आन्दोलन के समय 1939 में शुद्धिवाला को सक्खर की सत्याग्रह समिति का
अध्यक्ष बनाया गया। उन दिनों वह के मुसलमान हिन्दू लड़कियों को भगा कर एक स्थान
खडे में ले जाकर रखते थे। बाद में उन अबलायों को मुसलमान बना देते थे। शुद्धिवाला अपने प्राणों की फिक्र न करते हुए
वहां पहुँच गया और कई हिन्दू लड़कियों का बचा लाये। पंडित लेखराम के मस्जिद से हिन्दू लड़की को
बचाने वाली घटना का पुन: स्मरण हो गया।
एक घटना उनके
जीवन के संघर्ष को यथार्थ कर आज भी हमे गुदगुदाती है। सिंध में तुल्सया नामक हिन्दू लड़की एक मुसलमान
के साथ भाग गई। पुलिस के सामने तुलस्या उसी मुसलमान के तरफदारी करती रही जिसके साथ
वह भागी थी। हिंदुयों को अंदेशा था कि तुलस्या तो जाएगी ही, उससे
मुसलमानों की हिम्मत और बढ़ जाएगी। जिससे
उन्हें हिन्दू लड़कियों को भगाने की छुट ही मिल जाएगी। शुद्धिवाला के प्रयासों से
भी वह तस से मस न हुई। तुलस्या को जेल में
रखा गया था। शुद्धिवाला मुस्लिम वेश भूषा
पहन कर जेल में चला गया। जेल में वे
तुलस्या से फिर से मिला। उसे समझाया बुझाया। कुछ दिनों में उसने तुलस्या को वापिस
हिन्दू बना दिया। अगली सुनवाई के समय
तुल्सया ने हिंदुयों के पक्ष में गवाही दी और भगाने वालों को 5-5 वर्ष की सजा हुई। तुलस्या को शुद्ध कर उसे हिन्दू पति के साथ रखा
गया। अपने जीवन के अंतिम वर्षों तक
तुलस्या हिन्दू ही रही।
भूत प्रेत का
भागना
यह घटना 1947
से पहले की है। आर्यसमाज उस काल में
हिन्दुओं में व्याप्त अन्धविश्वास के विरुद्ध जनजागरण अभियान चला रहा था। सिंध में
हिन्दुओं के घरों में एक और अंधविश्वास पनप रहा था। वह था भूत प्रेत का किसी भी औरत के शरीर में
आना और उसका बाल खुले छोड़कर झूमना। उस भूत को भागने के लिए भूपे को बुलाया जाता
जो पहले उस औरत को मारता पिटता, फिर उसकी मांग को पूछता। जब उसकी मांग जैसे धन, वस्तु
आदि की पूर्ति हो जाती। तो वह भूत औरत के शरीर से अलग हो जाता और औरत झूमना बंद कर
देती। घोटकी जिला सक्खर में 1919-1920
में आर्यसमाज की स्थापना हुई थी।
आर्यसमाज के कार्यकर्ता श्री खियाराम जी की औरत ने भूत चिपकने का नाटक
रचा। भूपे बड़े खुश हुए। वे कहने लगे की आर्यसमाजी तो भूत प्रेत को
मानते ही नहीं अब देखेगे की वे कैसे भूतों से छुटकारा पाएँगे।
खियाराम जी पर
आर्यसमाज का प्रभाव था व इस नाटक को समझते थे। उन्होंने पहले तो अपनी पत्नी को
समझाया बुझाया पर वह नहीं मानी और झूमती रही तो उन्होंने उसे एक कोठरी में बंद
करके वहाँ पर अग्निहोत्र करना शुरू कर दिया और चुपके से उसमे लाल मिर्ची दाल कर
कोठरी को बंद कर बाहर आ गए। उन्होंने घोषणा कर दी की हवन के धुएँ से भूत स्वयं भाग
जायेगा। उनकी औरत मिर्ची का तेज धुआ सहन
नहीं कर सकी और कोठरी से बहार निकलने के लिए चिल्लाने लगी। श्री खियाराम ने कहाँ की जब तक प्रेत नहीं
भागेगा तब तक दरवाजा नहीं खुलेगा। अंत में
उनकी औरत ने सत्य कथा कह सुनाई की उसे कुछ शिकायते थी। जिसे पूरा करने के लिए वह
भूपे के पास गयी थी। उसने यह ढोंग रचने को
कहा था। सारी हकीकत पता चलने पर पूरे शहर में आर्यसमाजियों की अंधविश्वास से
छुटकारा दिलवाने के लिए प्रशंसा मिली और भूपों को सभी ने धिक्कारा था। इस घटना के
बाद सन 1947 तक
फिर किसी भी महिला में कोई भूत नहीं आया।
आज भी
गांव-देहात में किसी के शरीर में भूतों के आने की ख़बरें सुनने को मिलती है। आर्यों
की यह पुरानी तरकीब अपना कर देखिये। निश्चित रूप से लाभ होगा। हिन्दू समाज को
आर्यसमाज का अन्धविश्वास के विरुद्ध पुरुषार्थ करने के लिए आभारी होना चाहिए।
सन्देश
मैंने सिंध में
आर्यसमाज के इतिहास का एक लुप्त पृष्ठ पाठकों के समक्ष यह सिद्ध करने के लिया लिखा
है कि आर्यसमाज ने हिन्दू समाज पर कितना उपकार किया है। आर्यसमाज हिन्दू समाज का
प्रहरी है। रक्षक है। आपत्ति काल में
धर्मरक्षा करने वाला है। आज की युवा पीढ़ी को आर्यसमाज द्वारा किये गए तप को स्मरण
कर प्रेरणा लेनी चाहिए। सिंध में वर्तमान में भी हिन्दुओं की दुर्दशा किसी से भी
छुपी नहीं है। भारत में यही परिस्थितियां धीरे धीरे जहाँ जहाँ हिन्दुओं की संख्या
कम और मुसलमानों की अधिक होती जा रही है बनने लगी है। आज हिन्दुओं को एक होकर,
संगठित होकर, अपने हिन्दू भाइयों की रक्षा करने का
संकल्प लेना चाहिए अन्यथा श्री राम और कृष्ण का नाम तक लेने वाला कुछ दशकों में
दुर्लभ हो जायेगा। स्वामी दयानन्द और आर्यसमाज का हिन्दू समाज पर उपकार अविस्मरणीय
है।आर्यसमाज हिन्दू समाज का प्रहरी है।
डॉ विवेक आर्य
No comments:
Post a Comment