14 फरवरी का दिन था। इस्लामबाद की सड़कों
पर जिस युवक-युवती के हाथ में गुलाब का फूल दिखता पुलिस गिरफ्तार कर लेती। सरकारी
फरमान था कि वेलेंटाइन डे पर कोई युवक-युवती किसी को गुलाब न दे पाए। यह विदेशी
त्यौहार है इससे पूरी पाकिस्तानी कौम को खतरा होगा। जिसके बाद एक-एक कर गुब्बारे
और फूल बेचने वाले गरीबों को गिरफ्तार किया गया। लेकिन उसी दिन लाहौर की सड़कों पर
आतंकी खून खराबा कर हमलों की जिम्मेदारी ले रहे थे। लेकिन इस्लामाबाद बम बारूद से
ज्यादा गुलाब के फूलों सा डरा सहमा सा नजर आ रहा था। उसी दिन वहां की मीडिया भी
अपनी संस्कृति और इस्लाम की दुहाई देकर वेलेंटाइन डे का विरोध करती नजर आ रही।
क्या कोई बता सकता है किसी मुल्क के लिए फूल खरतनाक है या बम-बारूद? युवाओ के हाथ में गुलाब सही है या
असलहा? मुझे नहीं
पता उनकी यह सोच इस्लामिक है या पाकिस्तानी! पर जो भी हो यह तय है कि यह सोच आने
वाले भविष्य में पाकिस्तान को बर्बाद जरुर कर देगी।
सन् 1947 से दुनिया
के नक्शे पर आया एक देश पाकिस्तान शायद शुरू से ही यथार्थ को भूल कल्पनाओं में जी
रहा है। वह मजहब के रास्ते दुनिया को फतेह करने के रोग से शिकार दिखाई देता है।
जिसका सबसे बड़ा सबूत यह कि आज भारत और अफगानिस्तान के अलावा पूरी दुनिया में
आतंकवाद कहीं भी हो, उसमें
पाकिस्तान के निशान जरुर दिखाई देते हैं। चाहे अमेरिका के सैनबर्नार्डिनो में
तश्फीन मलिक का हाथ हो या कंधार और भारत में कोई हमला। सबमें अमूमन पाकिस्तान का
ही हाथ होता है। शायद इस्लामाबाद हाफिज सईद और अजहर मसूद के जरिये जिन्ना के
पाकिस्तान का नक्शा बड़ा करना चाहता है। यदि यह उनकी प्रमाणिक सोच है तो इस्लामाबाद
की किस्मत में अभी काफी खून देखना बाकी है। हाल ही में हफ्ते भर के भीतर वहां एक
के बाद एक कई आतंकी हमले हो चुके हैं और इन घटनाओं के निशाने पर सेना के जवान, पुलिसकर्मी, जज, पत्रकार और स्त्रियों व बच्चों समेत
सभी तबकों के लोग रहे हैं। एक हफ्ते में करीब 100 से 200 लोग मारे गये। शायद भौगोलिक दृष्टि से
भी इन वारदातों का दायरा व्यापक है इन सब वारदातों से पाकिस्तान अपने क्षेत्रफल से
ज्यादा स्थान विश्व के अखबारों के पन्नो में पा गया।
पिछले एक सप्ताह से पाकिस्तानी अवाम और मीडिया इस बात को लेकर मुखर है कि
दुनिया को पाकिस्तान का दर्द समझना चाहिए कि वह किस तरह आतंक से पीड़ित है। बिल्कुल
मानवता के नाते यह समझना भी चाहिए लेकिन सवाल यह कि आतंकी अजहर मसूद को बचाने के
लिए चीन से वीटो कराने वाला पाकिस्तान क्या किसी का दर्द समझता है? सब जानते है इस्लामाबाद ने आतंक को दो
हिस्सों में विभक्त किया है जिसे वह अच्छा और बुरा तालिबान कहता है। उनकी नजर में
भारत में मुम्बई अटेक होता है तो अच्छा तालिबान पर जब पेशावर में 150 बच्चें या शहबाज कलंदर दरगाह शाह की
दरगाह पर 100 लोग मरते
है तो बुरा तालिबान। उडी हमला कर 19 भारतीय जवानों की हत्या करने वाले
अच्छे तालिबानी लेकिन क्वेटा में पुलिस ट्रेनिंग सेंटर पर हमला कर 61 जवानों को मारने वाले बुरे तालिबानी
होते हैं।
शहबाज कलंदर दरगाह शाह पर हमले के 24 घंटे बाद ही पाक आर्मी ने 50 से 100 के बीच आतंकियों को मार गिराने का दावा
किया है। फिलहाल अफगानिस्तान से लगी सीमा भी सील कर दी गई है पर सवाल है कि इतने
कम समय में, सेना ने
इतनी ज्यादा जगहों पर मुठभेड़ कैसे की? क्या उसे वे सारे ठिकाने पता थे और सब
कुछ जानते हुए भी खामोशी बरती जा रही थी? इन सवालों से भी पाकिस्तान अपने घर में
ही घिरता नजर आ रहा है। इतिहास के कुछ पन्ने कहते है कि जिन्ना ने मुसलमानों की
बेहतरी के लिए अलग पाकिस्तान की मांग की थी लेकिन थोड़े समय के बाद जिन्ना का
पाकिस्तान मजहबी तंजीमों, उलेमाओं, मोलवियों और आतंकियों का पाकिस्तान
बनकर रह गया और बने भी क्यों ना? क्योंकि
जिस देश का प्रधानमंत्री एक आतंकी बुरहान वानी को युवाओं का रोल माडल उनका आदर्श
बताने से गुरेज नहीं करता तो उस मुल्क के युवा बुरहान वानी ही बनेंगे न कि अब्दुल
कलाम। जहाँ सरकारी स्तर पर आतंकियों को महिमामंडित किया जाता हो और भौतिक विज्ञानी
नोबेल प्राइज विजेता प्रोफेसर अब्दुससलाम जैसे लोगों का का अपमान तो सब आसानी से
सोच सकते है कि वहां युवा क्या बनेंगे?
पाकिस्तान वैश्विक मंच पर खुद को आतंक से पीड़ित देश होने का रोना रोता है।
ताजा हमले से भी जाहिर होता है कि यह तथ्य अपनी जगह सही भी है। लेकिन जब काबुल या
दिल्ली से आतंक से निपटने की बात की बात दोहराई जाती है तो पाकिस्तान का दोहरा
चरित्र देखने को मिलता है। बलूचिस्तान, पश्चिमी वजीरिस्तान आदि में पाक आर्मी आप्रेशन जर्बे अज्ब चलाकर
हवाई हमले करती है तो उसे आतंक का खात्मा आतंक के खिलाफ पाक मुहीम बताया जाता है
लेकिन जब कश्मीर में भारत की फौज पर उसके पाले सांप जहर उगलते है तो इस्लामबाद की
तरफ से उन्हें आजादी के परवाने कहकर होसला अफजाई होती है।
शायद अब इस्लामबाद को समझना चाहिए मजहबी आतंक किसी मुल्क के लिए लाभ का
सौदा नहीं होता। इसके उदहारण के लिए उसे मिडिल ईस्ट की तरफ देखना होगा। मजहबी
तंजीमो के कारण ही आज सीरिया, सूडान, इराक तबाह हुए तो सोमालिया, नाइजीरिया आदि देश भुखमरी की जिन्दगी
जीने को विवश हैं। इस्लामाबाद को अजहर मसूद, हाफिज सईद, सयैद सलाहुदीन जैसे मानवता के खून के
प्यासे दरिंदों से बचना होगा। आतंक के भेद में गुड- बेड तालिबान के फेर से बाहर
आना होगा। अपना दर्द किसी को समझाने से पहले दिल्ली और काबुल का दर्द भी समझना
होगा। इसके बाद ही लोग पाकिस्तान का दर्द समझ पाएंगे।
-राजीव चौधरी
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